प्रासंगिक-संत कबीर - मोको कहाँ ढूंढें बन्दे

 संत कबीर - मोको कहाँ ढूंढें बन्दे

मध्य कालीन भारत में साहित्य और समाज दोनो पर संत कबीर (sant Kabir) की छाप स्पष्ट रुप से दिखाई देती है | साधारण जिवनी जीने वाले कबीर, भविष्य मे असाधारण जीव सिद्ध हुए | वो धर्म, जाती, वर्ण और क्षेत्र से हमेशा परें रहे| वो अधार्मिक नही थे, लेकीन धर्म के पाखंडियों को सिधी बात सूनानें मे कोई कोताई नही बरतते थे| उनका  डटकर मुकाबला करते थे| वो संत कवी होने के साथ साथ एक उदारमतवादी समाज सुधारक भी थे| एक तरह से धर्मनिरपेक्षता(Secularisam) की संकल्पना उन्होने सार्थकता से निभाई| 

हमारे यहाँ कई गणमान्य विभुतियों के जन्मदिन, जन्मस्थल तथा जन्मकथा पर इतिहासकारों मे एकवाक्यता नही हैं| इन प्रभुतियों मे संत कबीर भी शमील हैं| कोई कहते है की कबीर किसी हिंदू (हिंदू)विधवा के पुत्र थे और उन्हे त्यागने के बाद निरू और निमा यह मुस्लिम(Muslim) जुलाह (बुनकर) दंपतीने उनके अभिभावक की भूमिका अदा की| वहीं किसी अन्य कथा के नुसार वाराणसी(Banaras) के लहरतारा ताल मे कमल के फूल मे नन्हे कबीर अवतीर्ण हुए थे| 600 साल पूर्व इस घटना पर एकवाक्यता होना दस्तावेज की दृष्टी से तो महत्त्वपूर्ण हैं, लेकीन इस मद्दे पर जद्दोजहद करने से भी कइ जादा सार्थक हैं, कबीर दर्शन को समझना तथा उसे आचरण मे लाने की कोशिश करना| कबीर जी ने स्वयं ही कहा हैं की "हम काशी मे प्रकट भये हैं, रामानंद(Swami Ramanand) चेताये"| 

वाराणसी मे आज एक मुहल्ला कबीर चौरा के नाम से जाना जाता है| यही उनका लालनपालन करने वाले निरु और निमा  जुलाह (बुनकर) की कुटिया हुआ करती थी| बचपन से मुस्लिम परिवेश मे पले बडे कबीर, वैष्णव पंथी स्वामी रामानंद के संपर्क मे आए और उनके जरिये उन्हे  हिंदू(Hindu) धर्म के बारे मे जानने का अवसर प्राप्त हुआ| कबीर हमेशा से शांती(Peace) प्रियता के बुलंद पक्षधर रहे| वह अहिंसा, सदाचार तथा सत्य के प्रति निरंतन सचेत रहे| कडे प्रतिरोधक की छवी मे ढल गये कबीर, वास्तविकता मे अपार करुणासिंधू थे| व्यक्तित्व मे प्रतिरोध और करुणा का यह अनोखा संगम ही उन्हे कबीर, जिसका अर्थ हैं महान, श्रेष्ठतम बना गया| कबीर की महत्ता केवल  साहित्य मात्र तक सीमित नही हैं बल्की वह एक जीवनशैली हैं| कबीर के साहित्य और सोच का सही मायने मे आकलन करो तो समझ मे आता हैं की वो अपने आप मे एक संस्था हैं. मेलजोल, भाईचारा और प्रेमरस को बरसाने वाली एक विलक्षण विचारधारा है| यही कारण हैं की कबीर आज छह शताब्दी पश्चात भी शायद अपने जीवनकाल से भी कई गुना जादा, सार्थक प्रतीत होते हैं|

पंधरवी सदी के इस रहस्यवादी कवी पर भक्ती आंदोलन (Bhakti Movement)का काफी प्रभाव दिखाई देता हैं| उनकी कई काव्य रचनाएं गुरू ग्रंथ साहेब मे भी पाई जाती है| कबीर मानते थे की, धार्मिकता की राह पर चलनेवाले व्यक्ती, जो सभी सजीव तथा निर्जीव वस्तूओं को पवित्र मानते हो और लौकिक जगत से निर्विकार भाव से दुरी बनाएं  रखते हैं, उसी के ही साथ सत्य है| सत्य प्राप्ती हेतू स्वयं का त्याग जरुरी है| कबीर जी ने लिखा हैं, "जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नहीं, प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहीं" अर्थात मन में जब तक अहंकार बना रहता हैं तब तक  ईश्वर का साक्षात्कार होना असंभव हैं| जब अहंकार (अहम) नष्ट होता हैं, तभी प्रभु की प्राप्ती आसान होगी| जब ईश्वर का साक्षात्कार होता है, तो अहंकार स्वयं ही नष्ट हो जाता हैं| ईश्वर की सत्ता का बोध भी तभी संभव होता है| प्रेम में द्वैत भाव नहीं हो सकता, प्रेम की गली संकरी (पतली) हैं| इस में अहम् या परम मे से केवल एक ही समा सकता है| यदी परम को प्राप्त करने की चाहत हैं तो फिर अहम् को त्यागना, विसर्जित करना अनिवार्य है | "बुरा जो देखन मैं चला, बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय। जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय"| कबीर जी  की ये पंक्तीयां मानव स्वभाव पर बडा ही सटीक कटाक्ष करती है| मनुष्य जन्म तो हिरे जैसा हैं पर मानव यदी सजगता से जीवन नही जियेगा तो क्या होगा, इस बात को कबीर ने बडे प्रभावी ढंग से मुखर किया है|

"तूने रात गँवायी सोय के,

दिवस गँवाया खाय के।

हीरा जनम अमोल था,

कौड़ी बदले जाय॥

तूने रात गँवायी सोय के

सुमिरन लगन लगाय के,

मुख से कछु ना बोल रे।

बाहर का पट बंद कर ले,

अंतर का पट खोल रे।


माला फेरत जुग हुआ,

गया ना मन का फेर रे।

गया ना मन का फेर रे।

हाथ का मनका छाँड़ि (छोड़) दे,

मन का मनका फेर॥

तूने रात गँवायी सोय के,

दिवस गँवाया खाय के।

हीरा जनम अमोल था,

कौड़ी बदले जाय॥

तूने रात गँवायी सोय के

दुख में सुमिरन सब करें,

सुख में करे न कोय रे।

जो सुख में सुमिरन करे,

तो दुख काहे को होय रे।

सुख में सुमिरन ना किया,

दुख में करता याद रे।

दुख में करता याद रे।

कहे कबीर उस दास की

कौन सुने फ़रियाद॥"

कबीरजी ने भक्ति, रहस्यवाद और अनुशासन जैसे विषय अपने दोहें, भजन के माध्यम से समाज के सामने बडे प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किए| उन्होंने मुख्यतः हिंदी भाषा का उपयोग किया पर साथ साथ अभिव्यक्ती हेतू ब्रज,अवधी जैसे बोलियों की भी मदत ली|  कबीर की साहित्यिक कृतियों में कबीर बीजक, कबीर परचाई, सखी ग्रंथ, आदि ग्रंथ (सिख) और कबीर ग्रंथवाली (राजस्थान) इनका प्रमुखता से उल्लेख किया जा सकता हैं। कबीर वाणी और उसकी सिख तो किसी उदधी (सागर) की तरह अमर्याद हैं| इस प्रस्तुती मे मन के सागर मे उठी लहरों मे से बस चंद आंदोलन शब्दबद्ध करने का प्रयास किया हैं| कबीरपंथी, भक्तीमार्ग के साधक, कलाकार, जनसामान्य सभी को कबीर जी के साहित्य ने अभिव्यक्ती हेतू  हमेशा ही आकृष्ट किया हैं| प्रेरित किया हैं| निश्चित रूप से आगे भी यह सिलसिला जारी रहेगा इसमे कोई दोराय नही| किसी एक लेख मे कबीर साहित्यधारा का रसपान कराना, उसका संक्षिप्त विवरण भी, लगभग असंभव हैं|

कबीर जी का परमात्मा की खोज कहां करनी चाहिए, इस बारे मे मार्गदर्शन करता एक बहुत ही मार्मिक भजन हैं| उस सर्व शक्तिमान की प्राप्ती की कुंजी, जो हम सब को सौंपता हैं| कबीर जी के इस भजन से ही लेख का समापन करते है.

क्लिक करें - https://youtu.be/kZCgStafklE

"मोको कहाँ ढूंढें बन्दे,

मैं तो तेरे पास में ।

ना तीरथ में ना मूरत में, ना एकांत निवास में ।

ना मंदिर में, ना मस्जिद में, ना काबे कैलाश में॥

ना मैं जप में, ना मैं तप में, ना मैं व्रत उपास में।

ना मैं क्रिया क्रम में रहता, ना ही योग संन्यास में॥

नहीं प्राण में नहीं पिंड में, ना ब्रह्माण्ड आकाश में ।

ना मैं त्रिकुटी भवर में, सब स्वांसो के स्वास में॥

खोजी होए तुरत मिल जाऊं एक पल की ही तलाश में ।

कहे कबीर सुनो भाई साधो, मैं तो हूँ विशवास में॥"


https://youtu.be/kZCgStafklE


नितीन सप्रे

nitinnsapre@gmail.com

8851540881


टिप्पण्या

  1. आज काल पुस्तका साठी वेळ मिळत नसताना,ब्लॉग च्या माध्यमातून थोर चरित्र असलेल्या महा मानवांची ओळख मनाला भावली,उत्सुकता पुढील लेखाची.

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