प्रासंगिक - अमर्त्य मदन 'मन'मोहन

 अमर्त्य मदन 'मन'मोहन


मदन मोहन रायबहाद्दुर चुंनीलाल कोहली, इस भारीभरकम नाम के धारणकर्ता, बॉलीवूड मायानगरी तथा संगीतप्रेमीयों मे मशहूर हैं मदन मोहन  नाम से। अन्योन्य, तरल रचनाओं के रचयिता के रूप में उन्होंने संगीतप्रेमियों पर जैसे संमोहन कर दिया हैं। वे बहुमुखी प्रतिभा से अलंकृत थे। उनकी कलाकारी के वर्णन हेतु किसी भी एक भाषा के विशेषण पर्याप्त नही हैं। मदन मोहन के संगीत को लता दीदी के सुर मिल जाये, तो स्वरमाधुरी के अदृश्य पंखुड़ियों के सहारे, किसी अज्ञात टापू मे, मुक्त विचरण का आनंद पाने जैसा हैं। 


'लग जा गले के फिर वही', 'आप की नज़रों ने समझा', 'बैंय्या ना धरो', 'मेरा साया साथ होगा', 'तुम जो मिल गये हो', हम प्यार मे जलनेवालों को', 'उनकी ये इनायत है कि हम कुछ नही कहते', 'बदली से निकला हैं चांद', 'बैरन नींद न आए', 'तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है', 'मिलो ना तुमसे हम घबरायें' जैसे मोहमयी गीत,'जरुरत है जरुरत है जरुरत है एक श्रीमती की', जैसा हलका फुलका गीत, 'ये माना मेरी जान मुहब्बत सज़ा है' जैसी कव्वाली, 'रस्म-ए-उल्फ़त' को निभाएं', 'हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह', 'वो भूली दास्तां लो फिर याद आ गयी', 'बेताब दिल की', 'माई री मै कासे कहुं पीर अपने जिया की', 'जो हमने दास्तां अपनी सुनाई', 'तुम बिन जीवन कैसे बिता', 'अगर मुझसे मुहब्बत हैं', 'फिर वही शाम', 'मेरी याद मे तुम ना' …

ये लिस्ट कभी खत्म नही होगी। 


25 जुन 1924 को स्वर्गावतरण कर भूतल पर आया यह गंधर्व, हमारे लिये एक से बढ कर एक बेहतरीन नगमे रच कर मात्र पचास की आयु मे खट्टे दिल से  14 जुलै 1975 को फिर स्वर्गारोहण कर गाया। अब पचास साल  होने को हैं फिर भी उनकी रचनाओं की मोहिनी बरकरार हैं । 

 

मदन मोहन का जन्म इराक की राजधानी बगदाद मे हुआ। पिता इराक पुलिस मे अकाउटंट जनरल थे। आगे परिवार पैतृक गाव चकवाल चला गया। लाहोर की स्कूल मे उन्होंने कुछ समय शिक्षा प्राप्त की। उसी समय मदन मोहन ने शास्त्रीय संगीत का प्राथमिक ज्ञान प्राप्त किया। हांलाकि उन्हे कोई औपचारिक शिक्षा नही मिली थी। 


मदन जी फिल्मी दुनिया का रुख न करे, इसलिये दादाजी ने पुरा प्रबंध कर लिया था। मदन जी को उन्होंने डेहराडून की  लष्करी प्रशिक्षण संस्था मे दाखिल कराया। मदन जी 1942 से 1944  दो वर्ष आर्मी मे सेकंड लेफ्टनंट थे। दुसरे विश्वयुद्ध मे भी सहभाग लिया। युद्ध की समाप्ती के बाद, आर्मी को अलविदा कर अपने पहिले प्यार संगीत को गले लगाया। रणभूमी मे बंदूक की गोलियां दागने वाले इस सिपाही ने अपनी रचनाओं से कई दिलों का क़त्ल किया।



उन्होंने आकाशवाणी लखनौ तथा दिल्ली केंद्र पर सेवा की लेकीन मन नाही लगा। अँक्टिंग तथा संगीत का जूनून उन्हे मायानगरी मुंबई खींच लाया। लेकीन खुद्दारी की वजह से किसी से काम मांगने नही गये। और अभिरूचीपूर्ण संगीत ही देने का प्रण भी किया। संगीत के प्रती प्यार ने, उन्होंने काफी तकलीफ भी सही। घर से भी बेदखल किया गया। आठ आठ दिन खाना तक नसिब नही हुआ। सडक पर रातें गुजारी। लेकीन संगीत सृजनता बरकरार रही। बिना आग मे तपें सोने से आभूषण नही बनते। परिस्थिती की तपिश मे झुलसकर ही मदन मोहन जैसा अलंकार फिल्म जगत को प्राप्त हुआ था। 


हिंदी फिल्म नगरी मे 'किंग ऑफ मेलडी' की उपाधी से पहाचाने जानेवाले इस संगीत निर्देशक की पहले पसंद थी लता मंगेशकर। मदन मोहन की रचनाओं को गाते समय दीदी भी मानो सुरों मे रत्तीभर अधिक जान डालती थी। मोहम्मद रफी, मुकेश, किशोरदा आणि तलत महमूद ने भी मदन जी के संगीत निर्देशन मे अनुपम  गीत, गझल गाएं और उन्हे अमर बनाया। राजा मेहदी अली खान, राजेन्द्र कृष्ण तथा कैफ़ी आज़मी  ये गीतकार उनके दिल के करीब थे। हिंदुस्तानी वाद्य वाद्द्यों का अनोखा प्रयोग, ठेके का वजन, ध्यानाकर्षक प्रील्युड, इंटरल्युड, ये उनके संगीत की विशेष खूबियां थी। पचास से सत्तर की दशक मे हिंदी फिल्म संगीत की दुनिया मे उनका काम बेमिसाल रहा।



भुल भुलैय्या मे फसने के बाद जैसे कोई आगे नही बढ पाता, उसी जगह घुमते राहता, वैसे ही मदन मोहन की रचना सुनने के पश्चात वाही धून की भूल भुलैय्या मे खो जाता है । 'आपके पेहलु मे आकार रो दिये'और 'कभी ना कभी कोई ना कोई तो आयेगा'  यह स्वयं की रचनाएं उनकी विशेष पसंदीदा थी। छोटी मैफिलोंमे वें अक्सर ये गीत गाते और वाहवाही बटोरते। लेकीन अपने दिल का दर्द वो बयां कर रहे हैं, इस बात से मैफिल अंजान रहती। बडी विडंबना थी की मदन मोहन जैसा अवलिया फिल्म जगत मे अपुरस्कृत रहा। मदन जी  को पुरस्कार देने मे हमेशाही बडी कोताई बरती गयी।अपनी प्रतिभा पुरस्कृत करनेवाला 'कोई ना कोई तो आएगा'  यह आशावाद व्यर्थ होने से, पहलू मे जाकर रोनाही उनके  हिस्से मे आया। माया नगरी के इस  अवहेलना के कारण पुरस्कारों से उन्हे तिरस्कार हो गया। फिल्म फेअर पुरस्कार उन्हे सदा ही चकमा दे गया। 'वह कौन थी' फिल्म के संगीत के लिये उन्हे अवॉर्ड मिलना निश्चित लग रहा था। लेकीन ऐसा हुआ नही। लता दीदी ने जब इस बात पर दुःख जताया तो मदन जी ने कहा था की,  "आपको दुख हुआ  ये क्या किसी अवॉर्ड से काम हैं?" उन्हे जब फिल्म 'दस्तक' के संगीत निर्देशन हेतू राष्ट्रीय पुरस्कार मिला,  तब उसे स्विकारने वे जाना नही चाहते थे। उसी फिल्म मे अभिनय का अवॉर्ड संजीव कुमार को मिला था। उन्होंने मदन मोहन को  आपने साथ चलने को मनाया था।



मदन जी की सांगितिक सृजनता को समझे तो एक दर्जन फिल्म फेअर मिलना संभव लागता हैं। मगर एक भी नाही मिला ये वास्तव हैं। यह अनदेखी उन्हे रास नही आई। कोई भी संवेदनशील कलाकार प्रतिभा की उपेक्षा से घायल होना स्वाभाविक हैं। स्वास्थ्य खोने की हद तक मदन जी का दिल घायल हुआ।


वास्तविक  ऐसे लौकिक पुरस्कार अधिक से अधिक एक कमनिय प्रतिमा आपको सौपते हैं। इससे अमरत्व तो नही प्राप्त होता।मदन जी तो अलौकिक पुरस्कार के हकदार थे, जो उनकी ओर खुद बखुद चल कर आए। 'मौसम' फिल्म के ‘दिल ढुंढता है’ गीत के लिये उन्होंने कई धून रची थी। गिटार वादक भूपेंद्र की गले के अलगपन को पहचान कर, मदन जी ने उन्हे ब्रेक दिया। मदन मोहन के गुरू सचिनदा ‘दिल ढुंढता है’ रातभर सुनते रहे और इतने प्रभावित हुए की सुबह होते ही मुंबई के खार ईलाके मे स्थित अपने घर से खुद गाडी चलाते हुए सुबह सुबह मदन मोहन के घर,पेडर रोड गये। उनकी तारीफ की। असिस्टंट के घर जाकर सचिनदा द्वारा पीठ थपथपाना, द्वारकाधीश ने स्वयं सुदामा के घर जाकर सन्मान करने जैसा था। उस जमाने के दिग्गज निर्देशक नौशाद जी ने उन्हे कहा था की "मदन मेरे भाई, 'हैं इसिमे प्यार की आब्रू', ये एक गीत को मेरे नाम पर चढा दो, तो बाकी मेरे सारे गाने मैं तुम्हारे नाम करता हुं’। नौशाद जी द्वारा इन लब्जोमें सम्मानित होना किसी भी पुरस्कार से कम नाही था। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत गायक उस्ताद आमिर खां भी मदन जी के संगीत के प्रशंसक थे। उनकी बॉक्स ऑफिस पर हिट, पहली फिल्म थी 'भाई भाई'। इस फिल्म का 'कदर जाने ना' यह गीत मशहूर ठुमरी, गझल गायिका बेगम अख्तर को इतना पसंद आया की उन्होंने लखनौ से फोन कर मदन मोहन की सिर्फ तारीफ ही नही की, उनसे टेलिफोन पर ही इस गीत को बार बार सुनाने का आग्रह किया। मदन मोहनजी का जब निधन हुआ, लता दीदी लंदन दौरे पर थी। वो ट्रंक कॉल का जमाना था। लताजी को दो दिन तक यह दुखद समाचार मिला ही नही। बाद में किसी ने खबर देने पर उन्होंने फोन कर लंदन से अपने मदन भय्या को श्रद्धांजली अर्पण की। मोहम्मद रफी को भी मिडील इस्ट दौरे से लौटते समय हवाई अड्डे पर ही यह बात का पता चला। वह सीधे शमशान घाट पहुंचे। मदन जी को श्रद्धा सुमन अर्पित करते समय वह आंसू रोक न सके. उनही के लिये अपना गाया गीत शायद याद आ गया था।

"शाम जब आँसू बहाती आ गई

शाम जब आँसू बहाती आ गई

हर तरफ़ ग़म की उदासी छा गई

दीप यादों के जलाकर रो दिये

आपके पहलू में आकर रो दिये"

राजा मेहेदी अली खान के लब्ज ऐसे यथार्थ होना मन को विदीर्ण कर देता हैं। किसी बच्चे की भांती रोते रोते रफी ने इस महान संगीतकार को अंतिम बिदाई दी।


मात्र पचास साल की आयु मे परलोक सिधारे इस कलाकार के गीतों को मृत्यू के बाद चालीस साल होने पर भी संगीतप्रेमी भुला नही पाएं। लक्ष्मीकांत प्यारेलाल (दोस्ती), शंकर जयकिशन (संगम) और मदन मोहन (वह कौन थी) को 1965 मे बेस्ट म्युझिक डायरेक्टर के लिये नामांकन मिला था। बाजी 'दोस्ती' ने जिती। फिल्म फेअर न प्राप्त कर सके 'वह कौन थी ' फिल्म के 'लग जा गले' गीत को यूट्यूब पर आज 200 मिलियन से अधिक हिट्स और लगभग 12 हजार से अधिक वर्शन्स सुनने को मिलते हैं। इस धरातल पर, मदन मोहन शायद एकमात्र संगीत निर्देश होंगे, जिनके मृत्यू के तीस साल बाद प्रदर्शित फिल्म 'वीर झारा' के श्रेय नामावली मे संगीत निर्देशक के रूप में उनका नाम है। मदन जी के बेटे संजीव कोहली ने उन ही की रचनाओं  को पुनर्निर्मिती (recreate) किया था। मदन जी संगीत के चहेते आपको आश्र्वस्त करते है की, आपकी  रचनाएं कालजयी हैं। यही सच्चा यश हैं। अमरत्व ईसे ही कहते हैं।(१४९१)



नितीन सप्रे


nitinnsapre@gmail.com


8851540881




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