प्रासंगिक - "दाता भवति वा न वा"
"दाता भवति वा न वा"
निराशा के बीच आशा के दीप
आजकल अखबारों के पन्ने पलटो या फिर अन्य माध्यमों को सुनने देखने की चेष्टा करो तो अधिकतर हिंसाचार, दहशतवाद, भ्रष्टाचार, प्राकृतिक आपदा, आगजनी, बीमारी,संकीर्णतावाद जैसे नकारात्मक खबरों से ही सामना होता है. वस्तुनिष्ठ (Objective) सोच वालों को भी उदासी, हताशा, खिन्नता महसूस होने लगती है. मानव के अस्तित्व को ही आव्हान देने वाले कोरोना विपदा में जब उम्मीदों की डोर नित दिन कमजोर होती लग रही हैं तब हम में से ही कुछ सामान्य जनों के असामान्य कार्य से आशा के दीप टिमटिमाते हैं. मानव और मानवता के संबंधों पर, रिश्ते
पर कोई आंच नहीं आने का भरोसा दिलाते हैं.
पूरा देश कोरोना से निजात पाने में डटा हुआ है. मरीजों की संख्या की मात्रा के अनुपात में संसाधन नहीं हैं. सरकार, समाजसेवी संस्था कूछ त्रुटियों के साथ ही सही अपनी क्षमता नुसार काम कर रहे हैं. साथ ही कुछ लोगों का स्वयं प्रेरणा के साथ कुछ कर गुजरना समाजमन में मानवता की आस जगाये रखा है.
1. ऑक्सिजन दाता
महाराष्ट्र के नागपुर से प्यारे खान की कहानी एक मिसाल के रूप में देखी जा सकती हैं. प्यारे खान ट्रांसपोर्ट कॉन्ट्रॅक्टर हैं. विगत दिनो जब समूचे देश में ऑक्सीजन की कमी थी. नागपुर में भी ऑक्सीजन की किल्लत से कोरोना रोगियों के सामने जीने मरने का सवाल था, तभी प्यारे खान ने स्वयं करीब 1 करोड़ रुपये खर्च कर, दो ऑक्सीजन टँकर्स के माध्यम से सरकारी अस्पतालों में ऑक्सीजन उपलब्ध कर मानवता का एक अनोखा परिचय दिया.
नागपूर और विदर्भ में कोरोना मरीजों की संख्या दिन ब दिन अचानक से बढ़ रही थी और ऑक्सीजन बेड खाली न होने से मरीज और परिजन सचिंत थे। रमजान के महीने में लोगों की सेवा से बड़ा कोई पुण्य नहीं, ऐसा मानने वाले प्यारे खान ने गव्हर्नमेंट मेडिकल कॉलेज, एम्स, मेयो जैसे कई अस्पतालों और लोगों को 5 से 40 लाख खर्च कर ऑक्सीजन सिलेंडर्स और ऑक्सीजन कॉन्सेंट्रेटर उपलब्ध कराया
नागपुर में प्रतिदिन 19 ट्रकों के माध्यम से करीब 200 टन प्रति दिन लिक्विड मेडिकल ऑक्सीजन लाकर उसे सभी सरकारी अस्पतालों में आवश्यकता अनुसार देने का प्रयास किया गया। नागपुर में आपूर्ति के बाद ऑक्सीजन विदर्भ में आवश्यकतानुसार देते रहे। ऑक्सीजन का खर्च तो सरकार का था मगर ट्रकों का रखरखाव, ड्रायव्हर और क्लिनर्स की तनखा आदी खर्च प्यारे खान ने उठाया. प्यारे भाई बताते हैं कि इस काम को देखते हुए पूरे विदर्भ में सरकारी अस्पतालों में ऑक्सीजन सप्लाई मॅनेजमेंट का जिम्मा उनके कंपनी को सौंपा गया.
2. इदं न मम
ये दुसरी कहानी है महाराष्ट्र के मोहनराव कुलकर्णी जी की, जो सातारा के मूल निवासी हैं, आजीविका हेतु मुंबई के नजदीक अंबरनाथ में रहे और आजकल मुंबई में बसे हैं. आयु 65 वर्ष की है . चालीस साल किसी निजी कंपनी में नौकरी कर जो भी बचत की, फंड मिला, उसी के ब्याज की आमदनी से गुजारा करते हैं. साल दो साल पहले उनकी श्रीमती जी भी परलोक सिधार गई. उनकी कर्मभूमि अंबरनाथ के निवासी भी कोरोना संकट का सामना कर रहे हैं. नगर परिषद के मुख्याधिकारी प्रशांत रसाळ शहरवासियों
के सुविधा हेतु नगर परिषद अपना 700 बेड का कोविड सेंटर चला रही है. जिसमे 500 ऑक्सीजन बेड हैं. लेकिन संसाधन सीमित होने से समाज माध्यमों के जरिये लोगों से सहायता हेतु अपील की. मोहनराव जी ने उसे देखा. उनके पास चार साडे चार लाख रुपयों की व्यवस्था थी, तो नगर परिषद को फोन कर अँब्युलन्स भेंट देने की मनीषा बताई. नगर परिषद के पास अँब्युलन्स थी अत: कोव्हिड सेंटर के लिये व्हेंटिलेटर देने की नगर परिषद द्वारा गुजारिश की गई. व्हेंटिलेटर के लिये छ: साडे छ: लाख निधि की आवश्यकता थी, तो बाकी रकम का कर्ज लेकर व्हेंटिलेटर भेट दिया.
अपने पास जो भी भरपूर है उसमें से थोड़ा देने की नियत रखने वाले तो दिखाई देते हैं पर मोहनराव जी का, ऋण लेकर दान करने का असाधारण दातृत्व सिर्फ सराहनीय ही नहीं अनुकरणीय भी है.
3. सर्वोच्च त्याग
शतेषु जायते शूर: सहस्रेषु च पण्डितः। वक्ता दशसहस्रेषु दाता भवति वा न वा ।। संस्कृत के इस सुभाषित का कहना है की दानवीर पुरुष तो भाग्य से कोई बने या नहीं भी बने. जीवन की नश्वरता भलिभांती जानते हुए भी, दान की बात आसानी से हमारे पल्ले नहीं पड़ती. मृत्यु के पश्चात देहदान के लिए भी जनजागृती करने की जरूरत पड़ती है ऐसे में बात अगर जीते जी देहदान, प्राणदान की हो तो? मात्र नागपुर के नारायणराव जी दाभाडकर ने मनुष्य स्वभाव के विरले गुण का परिचय समाज को कराया. नारायणराव जी स्वयं, उनकी बेटी और उसका परिवार सभी कोरोना के शिकंजे में थे. उनकी स्वयं की स्थिति कुछ ज्यादा बिगड़ने से बड़ी मशक्कत के बाद शहर के इंदिरा गांधी महापालिका अस्पताल में भर्ती होना पड़ा. उनकी ऑक्सिजन लेव्हल 50/55 थी अत: ऑक्सिजन दिया जा रहा था. अस्पताल में रहते हुए उनको ये एहसास हुआ की बेड के अभाव में कई कम उमर इलाज न होकर कोरोना के शिकार हो रहे हैं. इस संवेदना से अस्वस्थता महसूस कर रहे नारायणराव जी को लगा की 85 साल तक जीवन का उपभोग लेने के बाद आज जब बेड की कमी से नौजवानों पर जिंदगी से हाथ धोने का प्रसंग हैं, तो ऐसी स्थिति में इस उमर मे अपना बेड छोड़कर किसी अधिक जरूरतमंद को इसका लाभ मिलना चाहिए. बस उन्होंने बेटी को अपने मानस से अवगत कराया तथा अस्पताल से डिस्चार्ज लेकर पहले तो अपने घर और फिर निजधाम को निकल गये. किसी आम नागरिक द्वारा प्राण दान जैसे सर्वोच्च त्याग की यह मिसाल निशब्द कर देती हैं.
वो सुबह कभी तो आएगी
यह कहानियां यह बयान करती है कि डरो ना. कोरोना आज जरूर कुछ मानवी जीवों पर प्रहार करता नजर आ रहा है, लेकीन मानव तथा मानवता को हराना कोरोना के लिये मुश्किल ही नही नामुमकीन है.
नितीन सप्रे
8851540881
nitinnsapre@gmail.com
।
Nitin ji khup positive post
उत्तर द्याहटवा