प्रासंगिक - 'अस्साँ हुंण टुर जाणा ए दिन रह गये थोड़े'

 'अस्साँ हुंण टुर जाणा ए दिन रह गये थोड़े'


नाम से पहले लगने वाली उपाधी और नाम के आगे लिखि डिग्रीयों की, पुरस्कारोंकी संख्या जितनी ज्यादा, व्यक्ती उतनी ही अधिक महत्तम मानी जाती हैं l लेकीन कोई विरले व्यक्तित्व को स्वनामधन्यता प्राप्त होती है l नाम के आगे पीछे की बडी से बडी उपाधी, डिग्री, पुरस्कार सब नाम मात्र रह जाते हैं l व्यक्तित्व ही मानो सर्वोच्च पुरस्कार का आविष्कार हो जाता हैं l ऐसे व्यक्तित्व का सत्कार नही किया जा सकता, पूजा ही हो सकती है l ऐसे महान विरले व्यक्तित्व को दुनियावासी, लता मंगेशकर के नाम से जानते हैं !

लता के पिता जो स्वयं संगीत के अवकाश के आफताब थे, ज्योतिष विद्या से भी तालुकात रखा करते थे l बताया जाता है की लता के जन्म से पहले ही उन्हे इस बात का अहसास हो गया था की आनेवाले शिशु मे कुछ दैवी अंश हैं l उन्होंने नन्ही लता को ये बताया था की वो ऐसी सफलता हासिल करेगी जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता, लेकिन उसे देखना उन्हे नसिब नही होगा l उसकी शादी भी नही होगी और उसे ही घरपरिवार के निर्वाह का कर्तव्य निभाना होगा l लता जी के जीवन पर दृष्टिक्षेप डाले तो पिता द्वारा आठ दशक पूर्व की गई भविष्यवाणी सौ प्रतिशत यथार्थ हुई नजर आती हैं l



पिता के अकाली निधन से लता को उनसे मिल रही शास्त्रीय संगीत की तालीम खंडित हुई l बारह तेरह की कमसिन उम्र मे ही घर चलाने की बडी जिम्मेदारी आन पडी l अत: दो महिनों के भितर ही काम शुरू करना पडा l पिता मास्टर दीनानाथ से पुरिया धनश्री से शुरु हुइ शास्त्रीय संगीत की तालीम उनके निधन पश्यात मास्टर विनायक की पहल से अमान अली जी के साथ हंसध्वनी से आगे बढने लगी l लेकीन घर परिवार चलाने के कर्तव्यभाव के कारण पार्श्वगायन की ओर रुख करना पडा और फिर उन्हे सही विधा से शास्त्रीय संगीत का रियाझ करने का मौका  कभी नही मिला, जिसका मलाल उन्हे ताउम्र रहा l एक साक्षात्कार मे लताजी ने अपनी भावना को प्रकट करते हुए कहा की, "कभी कभी लगता हैं की काश थोडे समय पहले मै क्लासिकल संगीत सुरू कर पाती..अब थोडी देर हुइ है, फिर भी मैं जरूर गाऊंगी..कोशिश करूंगी" बडे शालीनता से वो हमेशा दोहराती हैं की, आप सफलता की चोटीं पर क्यूँ न हो, किसी को, कभी भी यह नही सोचना चाहिए की उसने सब कुछ पा लिया है l संगीत एक ऐसी कला हैं जिसमे कोई भी, कभी भी परिपूर्णता नही पाता l



पिता के मृत्यु के बाद जब वो बेसब्री से काम ढुंढ रही थी, तब अनिल बिस्वास ने एक फिल्म के लिये उन्हे गायिका के रूप मे चुना था l फिल्म के नायक थे दिलीप कुमार l जब लता को उनसे मिलवाया गया तो उसका पुरा नाम सुनते ही वो कह गये, ये तो मराठी हैं l मराठी लोगों के तलफ्फुज मे थोडी दाल चावल की बू आती है l स्वाभाविक रुप से लता को घुस्सा तो आया लेकीन उसने इसे मात्र अपमान की तौर पर ना देखते हुए संगीतकार मोहम्मद शफी से मिलकर, उर्दू ठीक करने के लिये किसी का इंतेजाम करने की बिनती की और मौलाना मेहेबुब से उर्दू की शिक्षा ली l दाल, गरम चावल और उसमे घी पडने के बाद जो खुशबू आती है उससे सभी दुनिया को अवगत करया l अपमान को अवसर मे बदल डाला l वो दिलीप कुमार की शुक्रगुजार रही की उनकी वजह से वो उर्दू सिख गई l अगस्त 1947 मे देश के आझादी के तराने के साथ साथ ही लताजी के पार्श्वगायन का सिलसिला भी सुरू हुआ l 1948 से संघर्ष की राह धीरे धीरे कुछ आसान सी  होने लगी और सालभर के अंदर ही लता ने बडी मधुरिम, सुरीले अंदाज मे हृदय से कहा आयेगाss आयेगाss आयेगा आनेवाला आयेगा…और फिर शिखर पर आरूढ हो गई हमेशा के लिये l फिर भी अपनी विनम्रता का परिचय देते हुए कहती हैं "आवाज अमर हुआ ऐसे तो मैं आज भी नहीं मानती, पर हां मुझे औरों से कई गुना अधिक नाम मिला." 



कहते हैं की सफलता का रास्ता आसान नही होता l कोई भी सफल व्यक्ती शॉर्टकट अपनाकर, कडी मेहनत किये बगैर ही शिर्षस्थ नही हुआ l युगसम्राज्ञी लताजी का उदाहरण ही ले, तो गीतकार गुलजार सहाब किसी साक्षात्कार मे बताते हैं की लताजी को जो भी गीत गाना होता था, उस पुरे गीत को वो अपने स्वयं के हस्ताक्षर मे लिखती थी ताकी उसे ठीक से पढे, समझे और कोई छोटी से छोटी गलती की भी गुंजाईश ना रहे l पार्श्वगायन कें क्षेत्र मे उनका शब्द अंतिम माना जाने लगने के बाद भी, निर्विवाद ख्याती प्राप्त व्यक्तित्व बनने के बाद भी, उनका व्यवहार एकदम सरलसा रहा l गुलजार बताते हैं की उनसे संवाद बडी सहजता से संभव होता l गीतों के चयन के प्रति वो निहायत चुझी थी l गुलजार का लिखा और पंचमदा ने संगीत किया आपकी 'आँखो मे कुछ महके हुए से राज हैं',  जैसा नटखटता से ओतप्रोत गीत कौन भुल सकता है? इस गीत के अंतरे मे एक शब्द ' बदमाश ' हैं l पंचम को डर था की दीदी इस शब्द पर आपत्ती करेगी अत: वो गुलजार से उसे बदलने का आग्रह कर रहे थे l वे एकदम से राजी तो नही हुए कहा की पर्यायवाची शब्द तय्यार रखेंगे लेकीन एकबार दीदी से बात तो करते हैं l लता जी को जब ये पता चला तो उन्होंने कोई आपत्ती तो जताई नही ही, कहने लगी यही तो एक नया शब्द मिला हैं मुझे गाने के लिये और रेकॉर्डिंग के समय उसे हलकी हंसी के साथ गाते हुए बडी खुबसुरती से निभाया भी l 



फिल्म इंडस्ट्री मे लताजी के बिना काम करना जब लगभग असंभवसा लगता था उस समय एक संगीत निर्देशक था जिसने इस सुरसम्राज्ञी से कभी एक भी गीत नही गवाया था l उसका नाम जान कर सभी को हैरानी होगी, संगीतप्रेमीयों का जिगर घायल करनेवाला वो संगीत निर्देशक था, जादूनगरी का जादूगर, ओ पी नय्यर l इस तथ्य के आधार पर कहानी रची गयी की लता जी तथा ओपी मे कुछ अनबन हैं l अफवांए फैलने लगी, जिससे लताजी दुखी होती थी l ओ पी  से मन मुटाव की बात वो कइ बार खारिज कर चुकी हैं l उनमे और लता मे कोई झगडा नाही था l ओ पी के निधन के बाद मैने लताजी से दूरदर्शनपर उनकी शोक संवेदना रेकॉर्ड करने हेतू संपर्क किया था l स्वास्थ्य ठिक नही होने के बावजुद उन्होंने स्वयं फोन कर ओ पी के प्रति उनके काम के प्रती जो भावपूर्ण बातें फोन ही पर रेकॉर्ड करवाई थी, उससे इस बात को पुष्टी मिल गई, की दोनो को एक दुसरे के प्रती आदर था l पर दोनो का यह मानना था की, जिस तरह के गीत ओ पी बनाते थे उसके लिये लता का आवाज शायद सूट नही करता l उनके निर्देशन मे एक गीत रेकॉर्ड होना भी था, लेकीन लताजी की तबीयत रेकॉर्डिंग के दिन खराब होने से वो नही हो पाया l 

बिना हिचक, बडी पारदर्शीता का परिचय देते हुए वो बताती हैं की, उन्हे पहले घुस्सा बहोत आता था l कहती हैं की संगीतकारों से उनके काफी झगडे हुए l लोग उन्हे झगडालु कहते थे l संभवतः बचपन से ही संघर्ष पथ पर की मार्गक्रमणा करने के कारण यह हो सकता है l 

एक बात काबिले तारीफ हैं की सूरकर्मियों के लिये लता जी ने लढाई भी लढी l उन दिनों पार्श्र्वगायकों का नाम टायटलस् मे नाही दिया जाता था l लताजी ने राज कपूर के पास इस बात का जिक्र किया l राज जी ने बात तुरंत स्विकार कर अपनी फिल्म ' बरसात ' मे लता जी तथा मुकेश जी का नाम दिया और तभी से पार्श्वगायकों के नाम की बरसात शूरू हुई l ग्रामोफोन रेकॉर्ड पर भी फिल्म के हिरो हिरोईन के कॅरेक्टर नाम देने का चलन था l जैसे फिल्म महल के गानों की रेकॉर्ड पर फिल्म की किरदार कामिनी का नाम था l लताजी ने काफी संघर्ष किया, जिसमे  राज जी, नौशाद जी की मदद मिली l फिल्म 'बरसात', 'अंदाज' की रेकॉर्डस् से गायकों के नाम देने का नया अंदाज स्विकार किया गया l 


आम तौर पर यह माना जाता है की अपने क्षेत्र मे जो भी काम जो भी करता  है, उसके प्रती पुरा पुरा आत्मविश्वास होना जरुरी हैं l लेकीन पार्श्वगान की चोटी पर सवार लताजी बताती हैं की वो खुद के गाने कभी नही सुनती l जिनके गाने सुनकर लोग जिंदगी भर का सुकून प्राप्त करते है, वो खुद अपने काम से, गायन से कभी संतुष्ट नही रहती l कहती हैं, मन में सदा ये डर बना राहता हैं की पता नहीं कैसे गाया हैं? अब इसे आत्मविश्वास की कमी कहें या परफेक्शनिस्ट होने का प्रमाण !

उंची से उंची स्वरपंक्ती गाते समय भी उनके चेहरे की रेषा बदलती नही l ये बात असंभव सी लगती हैं l अपने पैर के अंगुठे पर दबाव डालकर लताजी उसे संभव बनाती हैं l चप्पल रेकॉर्डिंग रूम के बाहेर उतारकर गाने की आदत की वजह से सुरकर्मियों को इस बात का पता चला था l


सूरमयी लताजी को जीवन मे कई असुरी घटानाओं, बातों का भी सामना करना पडा l एक वक्त उनके और आशा के संबंधों के बारे मे बहोत कुछ भला बुरा कहा गया l यह बात सच हैं की उन दोनो के बीच कुछ साल बातचीत तक बंद थी लेकीन उसकी वजह  आशा के पहले पति गणपतराव भोसले थे, जिन से ने 13 साल की उमर मे किसी को भी न बताते हुए घर से भाग कर शादी की थी l

सुमन कल्याणपूर, वाणी जयराम इनकी स्वरयात्रा मे अवरोध लाने का आरोप भी लताजी पर होता रहा l लेकीन उन्होंने इसे सरासर झुठ करार दिया l एक साक्षात्कार मे वो बताती हैं की सुमनजी को उन्होंने अपना रिहल्स किया गीत दिया था l वाणीजी को सबसे प्रथम उन्होंने ही सराहा था l नई प्रतिभा का सम्मान हो इसलीये उन्होंने कुछ साल पहले स्वयं के लिये, फिल्म फेअर पुरस्कार लेना बंद किया था l यह बात जानकर बडी हैरानी होती हैं की लता मंगेशकर जैसा बनने की जरासी भी संभावना किसी को, अहो धन्यता की अनुभूती करायेगी l लेकीन स्वयं लता जी की इच्छा कुछ अलग है l एक साक्षात्कार मे उन्होंने कहा की, हिंदू पुनर्जन्म मे विश्वास रखते हैं l मैं भगवान से प्रार्थना करुंगी की मेरा कोई पुनर्जन्म ना हो l लेकीन अगर हो तो, भारत मे, महाराष्ट्र मे किसी छोटे परिवार मे हो और लडके का हो l


देश की आझादी के समय से ही लता जी के पार्श्वगायन का स्वरगंध महकना सुरू हुआ l आझादी और लताजी के पार्श्वगायन के प्रारंभ का अमृत महोत्सव एक साथ मनाने का सौभाग्य देशप्रेमी तथा लताप्रेमियों को मिलना भी अनोखा संजोग है l आज देश की बेटी लताजी के सुरों का अमृतपान करते समय उन्ही के एक गीत के बोल

'लिखने वाले ने लिख डाले मिलने के साथ बिछोड़े

अस्साँ हुंण टुर जाणा ए दिन रह गये थोड़े' (अस्साँ- इस तरह, हुंण- अब, टुर- चल, जाणा- जाना, ए- हैं) मन को व्याकुलता का अहसास भी करा रहे है l 



नितीन सप्रे

nitinnsapre@gmail.com

8851540881
















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