प्रासंगिक - फुटबॉल - झुंड प्रवर्तन
फुटबॉल - झुंड प्रवर्तन
झुंड को क्यों देखें?
झुंड को नजरअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए। क्यों? क्योंकि झुंड प्रेरणादायी है। प्रेरणा के आदान-प्रदान की एक आकर्षक श्रृंखला है। शायद कोई दैवीय प्रेरणा का संक्रमण है। कर्मयोग है और इसलिए झुंड को टाला नहीं जा सकता, इसे लग जा गले कहना पड़ता है। झुंड वास्तव में एक ठोस सामाजिक टिप्पणी है।
सामान्यतः उच्च वर्ग को मलिन बस्तियों से घृणा होती है। लेकिन किसी भीगी बरसाती दोपहर में झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले कुछ युवाओं को टूटी बाल्टी से फुटबॉल खेलते हुए देखकर सेवानिवृत्ति के क़रीब आते एक खेल शिक्षक ने देखा। उसके मन में उनके लिए कुछ करने की ललक भर गई। इसी से प्रेरणा मिली स्लम सॉकर को। इस स्वप्नदर्शी शिक्षक का नाम है प्रोफेसर विजय बारसे। इसी काम ने प्रेरित किया झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले बच्चों को अपराध से दूर रहने के लिए । यही परिवर्तन प्रेरणा का स्रोत बना, युवा निर्देशक नागराज मंजुळे के लिये, जो हमेशा हटके विषयों की तलाश में रहते हैं, और साकार हुआ झुंड।
झुंड की कहानी नागपुर के गड्डी गुदाम स्लम से शुरू होती है और समाज के सर्वहरा तथा प्रस्थापित ये दो वर्गों की जीवन प्रणाली का चित्रण सशक्त रूप से प्रस्तुत करती है। समाज परिवर्तन की तमाम कोशिशों के बावजूद, ये दो वर्गों के बीच आज भी ऊंची दीवार मौजूद है। इसमे कोई दोराय शायद ही हो सकती है। दीवार की एक तरफ कॉलेज के वो छात्र है जिन्हे फुटबॉल खेलने की सभी सुविधाएं उपलब्ध हैं, और दूसरी ओर इससे विपरीत युवा है, जिनकी जीवन शैली में अपराध, जुआ और ड्रग की लत का बोलबाला है। वहां महत्वाकांक्षा है 'भाई' बनने की। इसे परिस्थितिजन्य कहा जा सकता है। क्योंकि शुरू में पैसे की लालच मे उन्हें फुटबॉल खेलने को प्रवृत्त करने वाले प्रोफेसर विजय बारसे, धीरे-धीरे उनमें आमूल-चूल परिवर्तन लाते है। अनियंत्रित झुंड दीवार पार करती है। फुटबॉल टीम में परिवर्तित होती है। 70 साल से अधिक उम्र के खेल शिक्षक प्रो. बारसे की बीस साल की मेहनत रंग लाती है। कर्मयोग फलद्रूप होता है।
मनोरंजन तथा वैचारिक
महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाके से ताल्लुक रखनेवाला एक होनहार युवा मायानगरी बॉलीवुड आता है और झुंड को निर्देशित करता है। अभिनय के सर्वेसर्वा, महानायक अमिताभ बच्चन और अभिनय की परिकल्पना से भी अनभिज्ञ स्लम के युवाओं का आशीर्वाद एक साथ प्राप्त करने का कुछ असम्भव सा काम करता है । ये भी 'दीवार' है, जो निर्देशक नागराज, बखुबी लांघते है।
अतिमान्य अमिताभ, अतिसामान्य युवा, वास्तवदर्शी स्क्रीन प्ले और संवेदनशील निर्देशन, झुंड की यशोगाथा का मर्म है। यहाँ महानायक के होने से ही फिल्म ने नई ऊंचाई प्राप्त की, यह कहना अर्धसत्य होगा। अमिताभ के नाम का फ़ायदा ज़रूर हुआ, लेकिन अधिक लाभ अमिताभ को जिस तरह प्रोजेक्ट किया है, निर्देशित किया गया है, उससे हुआ। अमिताभ की भागीदारी से झुंड एक व्यावसायिक बॉलीवुड फिल्म बनने की आशंका प्रबल हो रही थी। लेकिन निर्देशक ने अपनी ख़ास पहचान बनाए रखी और उसे निरस्त किया।
नागराज द्वारा निर्देशित सैराट, फैंड्री, पिस्तुल्या जैसी फिल्म्स, जिसने भी देखी है, समझी है, वह इस बात से सुपरिचित है, कि यह निर्देशक केवल मनोरंजन नही करता, बल्कि सोचने पर भी मजबूर करता है। उसका अपना एक सूत्र है, फॉर्म्युला है। मराठी से हिन्दी के प्रांत आते समय भी बडी दिलेरी के साथ उसने अपने फॉर्मूले पर ही काम किया। यह बात विशेष उल्लेखनीय है। झुंड मे हम महसूस करेंगे, कि महानायक की अदायगी बडे़ ही सामान्य रूप से असामान्य है। उसका साथ दे रहे हैं स्लम के युवा जिनका अभिनय, कैमरा जैसे विधाओं से पहले कभी आमना-सामना ही नही हुआ, फिर भी वे अमिताभ के साथ सहज है और जानदार प्रदर्शन दर्ज करते है। यहाँ फिर एक बार, फिल्म निर्देशक का माध्यम है, इस सत्य को नागराज ने रेखांकित किया है। झुंड देख कर इसे महसूस किया जा सकता है। ज़मीनी हक़ीक़त बयां करना, मिट्टी की सौंधी महक वाले कथासूत्र पर फ़िल्म बनाना, लोग सहजभाव से जुडे़ ऐसे भाषा का उपयोग, यह निर्देशक नागराज की शक्तिस्थली है। यही एक विशेषता उनकी फ़िल्मों को चूल्हे के खाने का स्वाद दिलाती है। सैराट, फैंड्री जैसी उनकी इससे पूर्व प्रदर्शित मराठी फिल्म्स को यही तड़का है। बॉलीवुड सुपरस्टार अमिताभ को लेकर उनकी यह पहली फ़िल्म भी इस बात का अपवाद नहीं है।
जन्मकथा
झुंड के वास्तविक नायक प्रोफेसर बारसे से नागराज की पहली मुलाक़ात भी पूरी तरह फ़रिल्मी है। रात क़रीब साढ़े दस बजे नागपुर के गड्डी गुदाम इलाके़ में प्रो. बारसे के घर के दरवाज़े पर दस्तक दी जाती है। दरवाज़ा खुला ही होता है। चार-पांच लोगों कि झुंड (टीम) घर के अंदर प्रवेश करती है।
बारसे ख़ुद विशेष रूप से फ़िल्म प्रेमी नहीं होने से उन्हें फैंड्री, सैराट जैसे शब्दों से कोई अर्थबोध होना मुश्किल काम था। अंततोगत्वा 'ज़िंग ज़िंग ज़िंगाट' इस फ़ेमस गीत से नागराज की पहचान प्रो. बारसे को होती है, और मिशन स्टेटमेंट को बरकरार रखने की शर्त पर वे झुंड को हरी झंडी मिलती है। स्थानीय भाषा, सहज कलाकार, असली लोकेशन और कई फिल्मों मे विजय नाम से किरदार निभाने के बाद असली विजय का किरदार निभाते अमिताभ तथा पूरी तरह नागपुर मे चित्रित झुंड का अवतरण होता है।
चोरी चपाटी से लेकर अन्य संगीन अपराधों में लिप्त झुग्गी-झोपड़ियों के युवाओं को प्रोफेसर विजय बारसे जैसा सुशिक्षित, संवेदनशील मार्गदर्शक मिलता है। इन युवाओं को फुटबॉल के व्यसन में ढालकर अन्य व्यसनों से निज़ात दिलाने हेतु प्रो. बारसे जो कुछ करते है, इसका चित्रण निर्देशक ने इत्मिनान से किया है। जैसे कोई पंडितजी या उस्ताद किसी मैफल में लम्बे काल तक स्वर विस्तार कर मैफल में बड़ा ख़्याल प्रस्तुत कर रहे हो। ऐसे मे दृत लय में छोटा ख़्याल सुनने मे ही रुचि रखनेवाले श्रोताओं पर जो गुजरती है उस बात का अनुभव फ़िल्म देखते वक्त कई दर्शकों को होता है । एक बात कहनी होगी की आकाश ठोसर (सैराट मे परश्या का किरदार निभा कर सूर्खिया बटोरने वाले) जो नकारात्मक भूमिका कर रहा है, उसमे कुछ अस्पष्टता लगती है ।
संवाद भेट
दिल्ली में आयोजित झुंड के विशेष खेल के दौरान, निर्देशक नागराज मंजुळे और कलाकारों से संवाद सम्भव हुआ । इस बात का श्रेय बेशक शुक्राचार्य जाधव, संतोष अजमेरा, सतीश जाधव और टीम को जाता है। भोजन पर अनौपचारिक बातचीत मे हमें निर्देशन प्रक्रिया के बारे में अधिक जानने का मौक़ा मिला। नागराज कहते हैं, "अगर अभिनय अच्छा हुआ तो इसका श्रेय अभिनेता/अभिनेत्री और निर्देशक दोनों को जाता है, लेकिन अगर वे मिट्टी खाते हैं, तो ज़िम्मेदारी पूरी तरह से निर्देशक पर आ जाती है।" नवागंतुकों के अभिनय की सराहना करते हुए, वह बताते है कि निर्देशक फ़िल्म निर्माण तंत्र को किस तरह संभालता है यह भी काफी हद तक महत्वपूर्ण है। नागराज निर्भीकता से कहते हैं कि समाज माध्यमों द्वारा कोई आलोचना हो तो वे उसे भिक नही डालता। वे अपने लिये कहते है, प्रशंसा में ना ही बह जाते और ना ही आलोचना से डरते है। जातिवाद का आरोप भी वे सिरे से ख़ारिज करते है।
झुंड का दर्शकों के लिये, पर्याय से समाज के लिये क्या संदेश है? अगर संक्षेप में कहना हो, तो यह दो महत्वपूर्ण संदेश देती है। एक तो मात्र कुशलता होना पर्याप्त नही। उस कौशल्य को सही राहगीर मिलना शायद अधिक ज़रुरी है। स्लम के युवाओं मे प्रतिभा तो भरपूर थी। प्रो. बारसे ने उसे तराशा, तो झुंड का फुटबॉल टीम मे प्रवर्तन संभव हुआ। और दूसरा महत्वपूर्ण संदेश है 'हर बार जितना ज़रूरी नहीं।'
नितीन सप्रे
8851540881
nitinnsapre@gmail.com
I think Vijay borade
उत्तर द्याहटवाThanks...His name is Vijay Barse only.
उत्तर द्याहटवा