प्रासंगिक - याद आ गया कोई

 

चाँदनी की ओट से मुस्कुरा गया कोई, याद आ गया कोई... 


मुकेश चंद माथूर' नाम का भावविभोर कर देनेवाला अनुपम सुरीला सपना, मायानगरी ने बिसवी सदी के चालिस के दशक मे देखा था। अब सपना तो निद्रावस्था मे, बंद आँखो से दिखाई देनेवाला आविष्कार है। लेकीन यकिन किजिये, मुकेश नाम का यह सपना, संगीत की नजाकत से परिचित सभी, आज भी  खुली आखों से तथा तृप्त कानों से पुरी तरह जागृत अवस्था मे ईसे देख रहे हैं, सून रहे हैं, जी रहे हैं। 



चंदेरी नगरी मे मुकेश का प्रवेश तो अभिनेता- गायक बनने की अभिलाषा से हुआ था। लेकीन प्रथम प्रयास 'निर्दोष' ही लोगों के दिलों को छुने मे विफल रहा दोष किसका था पता नहीं। नियतीनं एक अभिन्न गायक का तोहफा मुकेश के रूप मे हम धरतीवासिंयों को देना ते किया था। इसी लिये दो तीन और प्रयासों के बाद अक्टिंग को अलविदा कर, मुकेश ने शायद प्लेबॅक सिंगिंग को ही गले लगाया। मशहूर गायक कुंदनलाल सहगल मुकेश के लिये आदर्शवत थे। सहगल की गायिकी से वो इतने अधिक प्रभावित थे की 'पहिली नजर' फिल्म का मुकेश का पहिला प्लेबॅक गीत 'दिल जलता हैं तो जलने दे', कही सहगल जी का गाया ही तो नहीं हैं ? यह प्रश्न मन मे उठता है। इस गीत से 'पहिली नजर' मे ही मुकेश ने संगीत के चहेतों के दिलों में जो जगह बनाई वो, आंखरी गीत 'चंचल शीतल निर्मल कोमल' गाने के पश्चात भी कायम रही। फिल्म संगीत की दुनिया में उन्हे हमेशा 'सत्यम शिवम सुंदरम' ही माना गया। किंवदंता है की पहले और आँखरी, दोनो गीत फिल्म मे बने रहे इसलिये उन्हे काफी मशक्कत करनी पडी थी।


मुकेश की आवाज मे कुछ ऐसा अद्भुत रसायन रहा, की वो दिल मे घुल जाता है । पुराने जमाने की रेलगाडी के स्टीम इंजन की सिटी मे, जाडे के दिनों मे जो सिसकी का अनुभव होता, ठीक वही अनुभूती मुकेश के स्वर, आवाज से होती हैं । माटी की खुशबू महसुस करानेवाला हल्का आर्द्र स्वर, शायद परमात्मा ने ही उनके गले मे बसाया था। निरलस तथा सच्चेपन के कारण ही मुकेश के स्वर को स्वर्गीय कहा गया। यह बात कोई नहीं नकार सकता की गायक के रूप मे उनके गले की कुछ मर्यादाएं जरूर थी, लेकीन लयकारी तथा भावना के अतिरिक्त मिश्रण से मुकेश ने उसे कभी खलने नही दिया।


वैसे तो मुकेश ने कई प्रकार के गीत गाए। लेकीन मन की पिडा बयां करने वाले दर्द भरे नगमे उन्हे विशेष पसंद थे। किसी एक दर्द भरे नगमे को गाने के लिये, दस अन्य गीत छोड देना उन्हे गवारा था। अभिनय का अनुभव विफल होने के पश्चात, दुय्यम प्रती के अभिनेता बनने से अव्वल दर्जे का गायक होना मुकेश ने चुना तथा अपना पुरा ध्यान पार्श्वगायन पर ही केंद्रित किया। सहगल की गायकी के शुरवाती प्रभाव से निजात पा कर, 'आहिस्ता आहिस्ता'  स्वयं की शैली भी मुकेश ने विकसित की। यहाँ दिलीपकुमार का चेहरा, मजरुह के बोल और नौशाद के संगीत से निखरा 'अंदाज' उनके लिये मददगार साबित रहा। इस फिल्म की  'तू कहे अगर जीवनभर', 'झूम झूम के नाचो आज' ये गीत तो सभी के जुबां पर चढे
। फिर एक लंबे अंतराल के बाद ही ये त्रिवेणी संगम, एक बार फिर हुआ, लगभग बीस साल बाद, फिल्म 'साथी' मे और साथ ले आया 'मेरा प्यार भी तू है ये बहार भी तू हैं जैसे गीत का अमिट नजराना।


मुकेश ने मोतीलाल, दिलीपकुमार, राजेंद्र कुमार,भारत भूषण, मनोज कुमार, फिरोज खान, धर्मेंद्र, शशी कपूर, जितेंद्र, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन जैसे सभी  अभिनेताओं को अपनी आवाज दी, लेकीन राज कपूर के लिये गाए गीतों से, सही मायने मे मुकेश युग अवतरित हुआ.



मेरे टूटे हुए दिल से, छलिया (१९६०), दोस्त दोस्त ना रहा प्यार प्यार ना रहा, संगम (१९६४), दुनिया बनाने वाले, तीसरी कसम (१९६६), किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार, अनाड़ी (१९५९), आवारा हूं, आवारा (१९५१), जाने कहां गए वो दिन, मेरा नाम जोकर (१९७०), मै आशिक हूं बहारों का, आशिक (१९६२) जैसे कई मुकेश पर्व के गीतों की जंत्री दि जा सकती है। मगर 'चंदन सा बदन, मेरा प्यार भी तू है, आँसू भरी हैं, मुझे तुम से कुछ भी ना चाहिये,  चल अकेला चल अकेला, ओहो रे ताल मिले नदी के जल मे, कोई जब तुम्हारा हृदय तोड दे, कहीं दूर जब दीन ढल जायें, जाने कहां गये वो दिन', ये गीत मुकेश के दिवानों के दिल के निश्चित रूप से जादा करीब हैं। शब्द, अर्थ, आशय, रचना, लय, ताल, से परिपूर्ण बहुविध लावण्यपूर्ण गीत मुकेश ने गाए ।  इस रत्नहार से यदी एक ही रत्न चुनने को कहा जाए तो, संगीत सम्राट तानसेन का, राग सोहनी के सुरों से सजा.. 'झुमती चली हवा', याद आता हैं । काव्य, शास्त्र, संगीत के अंश मात्र से जब से परिचय हुआ तभी से, ये गीत मेरे मन मस्तिष्क मे झुमने लगा था। विद्यार्थीदशा मे कही दूर से भी यह गीत कानों पर पडता, तो तुरंत अपने रेडिओ पर भी 'झुमती चली हवा' चले, इस लिये की गई भागदौड का स्मरण मन मे अब भी ताजा है। गीतकार शैलेंद्र के आशयपूर्ण शब्द, उत्तररात्री और पौ फटने से पूर्व मे गाए, बजाए जानेवाले, उत्कटता से भरपूर राग सोहनी का, संगीत निर्देशक एस.एन. त्रिपाठी द्वारा चयन, दादरे का ठेका और मुकेश के आर्त स्वर से त्रिभुवन मात्रा की अनुभूती संगीत सम्राट तानसेन के 'झुमती चली हवा' इस गीत मे मिलती है।



झूमती चली हवा, याद आ गया कोई 


बुझती बुझती आग को, फिर जला गया कोई 


झूमती चली हवा ...


खो गई हैं मंज़िलें, मिट गये हैं रास्ते 


गर्दिशें ही गर्दिशें, अब हैं मेरे वास्ते 


अब हैं मेरे वास्ते 


और ऐसे में मुझे, फिर बुला गया कोई 


झूमती चली हवा ...


चुप हैं चाँद चाँदनी, चुप ये आसमान है 


मीठी मीठी नींद में, सो रहा जहान है 


सो रहा जहान है 


आज आधी रात को, क्यों जगा गया कोई 


झूमती चली हवा ...


एक हूक सी उठी, मैं सिहर के रह गया


दिल को अपने थाम के आह भर के रह गया


चाँदनी की ओट से मुस्कुरा गया कोई


झूमती चली हवा …


कला क्षेत्र अमर्याद संभावनाओं से भरपूर हैं, यह बात को स्वीकारते हुए भी, इस गीत को मुकेश के अलावा कोई और न्याय नही कर पाता, यह विचार मन मे आ ही जाता हैं। 

मुकेश जी को जन्मशताब्दी वर्षगाठ पर हार्दिक नमन..



नितीन सप्रे


nitinnsapre@gmail.c om


8851540881


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