प्रासंगिक - 'रफ़ी' बस नाम ही काफी
'रफ़ी' बस नाम ही काफी
प्रतिभा या कला फिर चाहे वो कोई भी हो, जहन मे होना अनिवार्य हैं। शिक्षा, प्रशिक्षण से उसे तराशा तो जा सकता है, लेकिन निर्माण करना असंभव हैं। ये तो कुदरती देन होती हैं, हर किसी को नसीब नही होती।
मोहम्मद रफ़ी हरफनमौला गायक थे किसी भी मानवी भावना की प्रस्तुती रफ़ी के गले से बडे सहजभाव से होती थी। मोहब्बत का इजहार हो, विरह व्याकुलता हो, हुस्न की तारीफ हो या फिर प्रभुभक्ती, देशभक्ती हो, गीत, गझल, नज्म या कव्वाली हो, भजन, भाव संगीत या शास्त्रीय संगीत हो, किसी भी विधा के साथ कलात्मक न्याय करने मे रफ़ी सहाब को महारत हासिल थी। लब्जों को अपने सुरों मे पिरों कर, रफ़ी मानो मोतियों का हार कद्रदानो को पेश करते थे।
'मधुबन मे राधिका नाचें रे', 'अजहुन आये बालामा सावन बिता जाये', 'मन तडपत हरी दरशन को आज', जैसे शास्त्रीय संगीत पर आधारित फिल्मीगीत, किसी ख्याल गायक की अंदाज मे रफ़ी प्रस्तुत कर देते। प्यार, छेडछाड, नर्मशृंगार जैसे भाव रफ़ी बडे बखुबी से गीतों द्वारा अदा करते है। 'याद न जाये बीते दिनों की', 'आज मौसम बडा बईमान हैं', 'अभी ना जाओ छोड कर, 'तुझे क्या सूनाऊ मैं दिलरुबा','चौदवी का चांद', 'खोया खोया चांद', 'नि सुलताना रे', 'आप के पहेलु मे आकर रो दिये', 'तुम ने पुकारा', 'आज कल तेरे मेरे प्यार की चर्चा', 'रिमझिम के गीत सावन गाये', 'आने से उसके आए बहार', 'इतना हैं तुमसे प्यार मुझे मेरे राजदार', 'तुझे देखा तुझे चाहा' ये सभी गीत इस बात का प्रमाण हैं ।
सन 1948 मे, गांधीजी की मृत्योपरांत, हुस्नलाल भगतराम के संगीत निर्देशन मे 'सुनो सुनो ए दुनियावालों बापू की ये अमर कहानी' इस गीत को रफ़ी ने आवाज दिया, तो भारतवर्ष के हर घर मे वे पहुंच गए। एक महिने के अंदर इस गीत की 10 लाख रिकॉर्ड्स बेची गयी। अगले ही साल फिल्म 'दुलारी' के लिये शकील बदायुनी का लिखा और नौशाद जी का रचा 'सुहानी रात ढल चुकी' इस गीत ने मोहम्मद रफ़ी को प्ले बॅक सिंगर के रूप में अच्छी पहचान दिलायी। हलांकी गीत पर कुंदनलाल सहगल की मुद्रा स्पष्ट थी। बॉलीवूड मे रफ़ी का स्वर्णीम काल 1956 से 1965 तक रहा। अपने करिअर मे कुल सोलह बार उन्हे फिल्म फेअर का नामांकन मिला तथा छह फिल्म फेअर पुरस्कारों से नवाजा गया। लाहोर की सलून से संगीत सफर सुरू करनेवाला यह गायक रेडिओ सिलोन के मशहूर बिनाका गीतमाला कार्यक्रम का बीस साल बेताज बादशहा रहा।
रफ़ी ने लगभग सभी संगीत निर्देशक तथा अभिनेताओं के लिये गीत गाये। नौशाद को तो वे अपना गुरू ही मानते थे। ओ. पी. नय्यर के साथ उनकी गहरी दोस्ती थी। कोई यकिन नही करेगा, लेकीन ओ. पी. के लिये रफ़ी ने कोरस तक गाया था। संगीतकार रवी ने रफ़ी से कई इमोशनल और रोमँटिक गीत गवाये। बर्मनदा ने रफ़ी को अधिकतर गुरुदत्त और देवानंद का आवाज बनाया। इस जोडी ने 'प्यासा', 'आराधना', 'नौ दो ग्यारह', 'काला बाझार', 'गाईड', 'तेरे घर के सामने' जैसी कई म्युझिकल हिट फिल्म्स बनाई। गीतों के बोल और धून चाहे कितनी भी बढियां क्यू न हो, जबतक गायक उसकी गहराई को ना छु ले तब तक उसका असर, तासिर(शक्ती) दिलों को छू नही सकती। 'ये दुनिया ये महफिल मेरे काम की नही' इस गीत के शायद सब से अधिक रिटेक रफ़ी ने दिये थे। गाना उंचे स्वर मे गाना था। और संगीतकार मदन मोहन को हर टेक मे कुछ ना कुछ खटक रहा था। संगीतकार की पूरी संतुष्टी होने तक रफ़ी सहाब, सात मिनट अवधी के ये गीत के टेक देते रहे। गाना उनके लिये काम नही इबादत थी। फिल्म जंजीर का 'दिवाने हैं दिवानों को घर चाहिए' इस गीत को रिकॉर्ड कर रफ़ी स्टुडिओ से निकले, तभी उनसे गीतकार गुलशन बावरा अचानक से मिले। उन्होंने बताय की ये गाना उन पर फिल्माया जानेवाला हैं। ये सुनते ही रफ़ी सहाब परेशान हुए, क्युकी अमिताभ बच्चन को सामने रख कर उन्होंने गीत गाया था। वो फिर स्टुडिओ गये और उस गीत गुलशन बावरा को सामने रखकर दुबारा गाया। यही कारण हैं, रफ़ी का गीत जिस किसी अभिनेता पर फिल्माया गया हो, वो अभिनेता स्वयं गा रहा है ऐसे ही प्रतीत होता हैं। 1965 मे गुमनाम फिल्म मे शंकर जयकिशन की निर्देशन मे रफ़ी ने पहली बार रॉक अँड रोल गीत गाया था. इस गीत को 2001 की हॉलिवूड फिल्म 'घोस्ट वर्ल्ड' मे लिया गया था।
सन 1957 मे प्रदर्शित 'नया दौर' फिल्म ने कामियाबी की नई उंचाई हासिल की। बी. आर. चोप्रा का सितारा बुलंदियों पर था। उन्होंने सोचा की 'नया दौर' के कलाकार भविष्य मे सिर्फ उनके बॅनर के लिये ही काम करें। पहले प्रस्ताव रफ़ी के सामने रखा, तो उन्होंने उसे बडी विनम्रता से नकार दिया। रफ़ी ने कहा की, "उनकी आवाज तो जनता की अमानत हैं, अत: जो भी संगीतकार उसका उपयोग, गाने के जरिये जनता के लिये करना चाहेगा, उसके लिये मुझे गाना होगा."रफ़ी का यह जबाब बी. आर. चोप्रा को रास नही आया. उन्होंने रफ़ी से कहा की वो अब कभी उनके लिये काम नही करेंगे, वो एक नया रफ़ी धुंडेंगे। अन्य निर्माताओं को भी रफ़ी को गाना देने से मना किया। रफ़ी को कम गाने मिलने लगे लेकीन कुछ समय बाद निर्माताओं को इस बात का अहसास हुआ की रफ़ी के बिना काम नही चलेगा। बी. आर. चोप्रा को भी पीछे हटना पडा, और फिर एक बार रफ़ी स्वर पाबंदियों से आझाद हुए। गौरतलब हैं की रफ़ी ने चोप्रा को कोई जबाब नही दिया। ये काम 'वक्त' ने किया।
'जिस रात के ख्वाब आए वह रात आई' यह 'हब्बा खातून' फिल्म का गीत, नौशाद साहब के संगीत निर्देशन में गाया, मोहम्मद रफ़ी का आखरी गीत रहा। नौशाद से गले मिलकर, भावुक होते हुए उन्होंने कहा था, " मुद्दत बाद एक अच्छा गीत गाया। आज बहुत सूकून मिला, अब जी चाहता है कि इस भरी पूरी दुनिया को छोड़कर चला जाऊं''। इस गाने की कोई फी रफी ने नही ली थी। अजीब इत्तेफाक था, कूछ समय बाद नौशाद साहब को इस भरी दुनिया को मोहम्मद रफ़ी सहाब ने अलविदा कहने की ख़बर मिली थी। 31-1 जुलै-अगस्त को मुंबई मे मुसलाधार बारिश होते हुए भी लाखों की भीड अपने लाडले कलाकार को भावभिनी विदाई देते हुए मन मे शायद यही कह रही होगी कभी ना जाओ छोड कर ये दिल अभी भरा नही'।
नितीन सप्रे
8851540881
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