प्रासंगिक - मंगलध्वनी - बिस्मिल्ला
शहनाई की मंगलधून
प्रास्ताविक
देश का पहला स्वतंत्रता दिवस हो, या हिंदुस्तान के सार्वभौम गणराज्य बनने का अवसर, स्वतंत्रता का स्वर्ण महोत्सव, या देश के आकाशवाणी केंद्र की रोज़ की पहली सभा का प्रारम्भ, या फिर देश में दूरदर्शन प्रसारण की शुरुआत और न जाने कितने ऐसे अवसर हो, इन सभी से एक व्यक्ति अभिन्न रूप से जुड़ी रही l उस शख्सियत को दुनिया बिस्मिल्ला के नाम से जानती है l वे कहते थे "मुझे बिस्मिल्ला कहते हैं, और कुरान भी शुरू होती हैं बिस्मिल्ला से l हम सब कुछ हैं और नहीं भी l हम सुर के कायल हैं l और दुनिया में किसी की मजाल नहीं की वो सुर को कम कर दे l"
उनका असली नाम वैसे तो कमरूद्दिन खाँ था मगर जन्म के बाद दादा ने कहा "बिस्मिल्ला", मतलब शुरूआत, आगाज़, आगे बढ़ो l जो की यथार्थ में बदला l कमरूद्दिन की कलाकारी नित दिन बहरती रही l यहाँ ज़िक्र हो रहा है उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ और उनकी मौसीक़ी का l बिस्मिल्ला से शहनाई नवाझ उस्ताद भारत रत्न बिस्मिल्ला खाँ बनने का सफर शुरु हुआ पांच, छह साल की कमसिन उम्र से, जब मामु अली बख्श के सीने से लिपट के सोते सोते उनके कहने पर,भले ही शब्दों को तोड़ मरोड़ कर ही, पर बड़ी सुरीली अंदाज में, छोटे मियां कुछ गा लिया करते और फिर सिलसिला चलता रहा ताउम्र, सुरों में तासीर(शक्ति) पैदा होने की आरज़ू सीने में लिये l
सूरदर्शी ही नहीं दूरदर्शी भी
उस्ताद जी का जन्मस्थल वैसे तो बिहार का डुमराँव गाँव हैं, लेकिन लालन-पालन हुआ, शिक्षा-दीक्षा मिली; रसीली, सुरीली नगरी बनारस में l शहनाई मानो जैसे बनारस की जेहन में हैं यहाँ हर मंदिर या धनिकों के महल में नौबतखाना देखने को मिलता हैं l दिन में चार बार शहनाई बजती थी l सामान्य घरों में भी कोई ख़ास प्रसंग शहनाई की सुरों से महकता था l शहनाई का यही संस्कार पिता खाँ सहाब पैगंबरबक्ष से बिस्मिल्ला को मिला l शहनाई की विधिवत शिक्षा उन्होंने मात्र छह वर्ष की आयु से ही वाराणसी में उनके मामू खाँ सहाब अलिबक्ष के यहाँ शुरु कर दी l बिस्मिल्लाजी के बुज़ुर्ग केवल सूरदर्शी नहीं बल्कि दूरदर्शी भी रहे l उन्होंने देखा की गायन वादन के क्षेत्र में कई महान कलाकारों ने पहले से ही अपनी छाप छोड़ रखी हैंl तभी अंतरंग की संगीत अभिव्यक्ति हेतु उन्होंने शहनाई जैसे वाद्य को चुना, जिस पर उस समय किसी की नाम मुद्रा मुद्रित नहीं थी l बिस्मिल्ला जी का नाम शहनाई से इस तरह जुड़ गया जैसे मोहन का मुरली से l विलायत हुसैन और सादिक अली से भी बिस्मिल्ला खाँ ने संगीत की तालीम हासिल की l सुरों का कांरवा बनने लगा l शादी ब्याह, जलसो में, छोटे बिस्मिल्ला अपने गुरूका साथ देने लगे l गंगा मैया में सुस्नात होकर सामने मस्जिद में नमाज़ अदा करना और फिर श्री बालाजी मंदिर में रियाज़, यही उनका रिवाज़ रहा l
मौसीक़ी की आगाज़
चौदह साल की उम्र में शहनाई वादन की अपनी पहली महफिल बिस्मिल्ला ने सजा दीं, इलाहाबाद की अखिल भारतीय संगीत परिषद में l उनकी शहनाई के सुरों मे ऐसा बेहद खुमार आ गया था, जैसे की, शहनाई वें हवा फूंक कर नहीं, जान फूंक कर बजा रहे हों l लखनऊ संगीत सम्मेलन में अपने दूसरे ही कार्यक्रम में उन्होंने स्वर्ण पदक हासिल किया l सात साल बाद कोलकाता की अखिल भारतीय संगीत परिषद में स्वर्ण पदकों की तिहाई लेकर उन्होंने शहनाई तथा स्वयं को सुस्थापित कर शहनाई के स्वर्णिम युग का बिस्मिल्ला किया l शादी के मंडप की चौखट को लांघ कर शहनाई विश्वमंच तक गुंजने लगी l
उनकी शहनाई लोगों के दिलों मे बजने लगी l अब किताबी पढ़ाई में तो उन्हें रुचि नहीं थी लेकिन संगीत के प्रति दिल में दीवानगी थी, कुछ जुनून सा था l तभी तो एक लोक वाद्य को शास्त्रीय संगीत के मंच पर सोलो वाद्य की पहचान दिलाने का भगीरथ कार्य बिस्मिल्लाजी के द्वारा संपन्न हुआ l देखते ही देखते शहनाई और बिस्मिल्ला दोनों एक दूसरे के पर्यायवाची शब्द हो गये l ये मकाम आसानी से हासिल नहीं होता l ये तो करतब हैं l जब कोई करेगा तब पायेगा...कहते हैं बिस्मिल्ला l
आकाशवाणी के लखनऊ केंद्र से उनका पहला कार्यक्रम प्रसारित हुआ 1938 में, जब उनकी उम्र 22 साल थी l उससे पहले साल डेढ़ साल सन 1936-37 में स्टार हिन्दुस्तान बैनर से रागदारी अदा करने वाली उनकी पहली रिकॉर्ड बनारस की घरों को मंगल ध्वनि से पुनीत करने लगी थी l विहाग, भैरवी, तोड़ी, दुर्गा, बागेश्री, जौनपुरी जैसे राग उनकी शहनाई से प्रवाहित हुए थे l सुगम संगीत (Light Classical) से भी उन्हें विशेष लगाव था l सन 1941 में लखनऊ मे ग्रामोफोन कंपनी द्वारा रिलीज़ तीन रिकॉर्डस् में मालकौंस, तोड़ी जैसे रागों के साथ साथ दादरा, ठुमरी का भी समावेश हुआ l
उस्ताद बिस्मिल्ला ने अमीर खाँ, अब्दुल हमीद जाफर खाँ, पंडित रवि शंकर, अमजद अली, व्ही.जी जोग जैसे गायक, सितारिये, सरोद तथा वायलिन वादकों के साथ शहनाई की जुगलबंदी पेश की हैं l सब से अधिक जुगलबंदियां ज़माने का सम्मान भी सम्भवतः उस्ताद जी के नाम पर ही हैं l
पचास की दशक में उन्होंने फ़िल्म जगत में भी शिरकत की l गुंज उठी शहनाई फ़िल्म और ‘दिलका खिलौना हाये टूट गया’ यह गाना तो उन्हें घर घर के हर दिल में स्थापित कर गया l फ़िल्म जगत में भी शहनाई का बोलबाला हुआ l
संगीत ही इबादत
खाँ साहब की एक खासियत रही l वे हमेशा महफिल के आरम्भ में यमन को ही नमन करते थे l संगीत के लिये उनके दिल में इबादत का भाव था l वे कहते थे कि जिस तरह खुदा इकलौता हैं, सूर भी इकलौता हैं l संगीत, सूर, नमाज सब एक ही हैं, अल्लाह के पास पहुंचने की ये अलग अलग राहें है l संगीत में इस तरह डूब जाओ की जैसे अपने मालिक को याद कर रहे हो, उसमें जो असर पैदा होगा वो लाजवाब होगा l
उस्ताद जी की मानस पुत्री गायिका डॉक्टर सोमा घोष ने फिल्म्स डिवीज़न द्वारा निर्मित डॉक्यूमेंट्री में कहा है कि, "खाँ साहब का व्यक्तित्व बिल्कुल अनोखा था l वे अपनी संगीत साधना के ज़रिये इंसान से ईश्वर पद को प्राप्त कर गए थे l उस्ताद जी ने यह साबित किया था कि जो सच्चे दिल से सूर की पूजा करते है वो इंसान से परे हो जाते हैं l संगीत के प्रति संपूर्ण समर्पण की भावना तथा उसके प्रति अध्यात्म का नज़रिया रखने के स्वाभाविक भाव के कारण ही वे बिस्मिल्ला हो गये l
व्यक्तित्व के पैलू
किसी जलसे के बाद दिग्गज संगीतकारों की उपस्थिति में बातें हो रही थी l तभी उस्ताद जी ने पूछा की हिन्दू धर्म में सबसे ऊंची चीज़ क्या है ? जवाब मिला संगीत l इस्लाम में तो संगीत हराम, निषिद्ध माना गया है l बिस्मिल्ला कहते है कि जहाँ संगीत हराम माना गया है तब भी फैय्याज खाँ, अब्दुल करीम खाँ सहाब जैसे दिग्गज प्रतिभाशाली उभर कर आए, अब अंदाज़ा लगाएं की यदि संगीत हराम ना होता, जायज़ होता तो हम (मुस्लिम) कहां होते?
बांसुरी वादक पंडित अरविंद गजेंद्रगडकर जी ने अपनी किताब में उस्ताद बिस्मिल्ला के व्यक्तित्व को उजागर करने वाला किस्सा लिखा हैं l अरविंद जी आकाशवाणी के धारवाड केंद्र पर संगीत विभाग के प्रमुख थे l उस दौरान उस्ताद जी कार्यक्रम हेतु वहां पहुंचे l आकाशवाणी केंद्र परिसर बडा रम्य था l बिस्मिल्ला जी की तबियत खुश हुई l उन्होंने होटल न जाने का और वहीं रहने का एलान किया l किसी नल पर खुले में ही स्नान किया l मटन का डिब्बा मंगवाया ये बताते हुए कि बनारस में वे कभी मांसाहार नहीं करते क्योंकि काशी विश्वेश्वर के पास शहनाई बजानी होती हैं l फिर नमाज अदा की और पेड़ की छांव में सो गए l
उस दिन का शहनाई वादन और ख़ास कर मालकौंस हमेशा के लिये यादगार बन के रह गया l खाँ साहब के लिये संगीत ही सब कुछ था l ज़िन्दगी में उन्होंने पैसे को कभी बहुत ज्यादा अहमियत नहीं दी l वो कहते थे कि पैसा तो खर्च करने से ख़त्म होता है, मगर सूर खर्च करने से कभी ख़त्म नहीं होते l इस बात से हैरानी होती हैं कि, भारत रत्न से सम्मानित होने के पश्चात अपने लौकिक जीवन के अंतिम चरण में किसी साक्षात्कार में उन्होंने पैसे की जो बात की थी, उसके पीछे क्या प्रेरणा रही होगी?
श्रद्धा सुमनांजली
अपने माध्यम सेवा काल में एक अजीब इत्तेफाक का मुझे अनुभव हुआ l नब्बे की दशक से लेख लिखने के समय तक, जितने भी दिग्गज परलोक सिधारे अधिकतर सभी को श्रद्धा सुमनांजली अर्पित करने का जिम्मा मुझ नाचीज़ पर आन पड़ा l 21 अगस्त को लंबी बीमारी के बाद उस्ताद बिस्मिल्ला अल्लाह को प्यार हुए तो भावना ऐसे प्रकट हुई कि शहनाई की सुरीली महफिल ने भैरवी आलापी...शहनाई के अनभिषिक्त सम्राट बिस्मिल्ला खाँ कालवश l लेकिन अब यक़ीन होता है कि ये सही नहीं l खाँ सहाब जैसे संगीत के साधक कभी मृत्यु को प्राप्त नहीं होते, वे गंधर्व लोक से मृत्युलोक में बीच बीच में आते जाते रहते हैं; हम जैसों का जीवन अपनी सूरगंगा से पावन कराने l
नितीन सप्रे
8851540881
बहुत ही अच्छा है हिंदी भी बेहतर है
उत्तर द्याहटवा