प्रासंगिक - आपकी गीतों मे कुछ महके हुए से राज है
आपकी गीतों मे कुछ महके हुए से राज है
बचपन मे ही पिता का स्वर्गवास हुआ, परिवार की जिम्मेदारी उठानी पडी। छोटी उम्र से ही कामकाज की तलाश जारी रही। मुंबई का एक उपनगर मालाड स्टेशन से दूर काम पर जाने के लिये तांगा न लेकर एक लडकी पैदल ही चल दिया करती थी, ताकी बचे पैसे साग सब्जी खरिदने के काम आए। चरितार्थ के लिये पाई पाई बचाने वाली ये लडकी, शायद मूल हेमा हर्डीकर (संभवतः मूल हर्डीकर उपनाम आगे चलकर रूढ उपनाम मे परिवर्तित हुआ ऐसा कहीं पढने मे आया। इस संदर्भ मे किसी को अधिक जानकारी हो तो अवश्य साझा करें) यह छोटी लडकी अपने हेमल स्वरों से चराचर सृष्टी को अभिषिक्त करेगी यह तो किसी ने सपने मे भी सोचा नही था। पर यही वास्तव सिद्ध हुआ।
साक्षात मां सरस्वती ने लता के कंठ मे निवास कर स्वारालाप किया। स्वरलक्ष्मी का आशीर्वाद तो था ही, समय बितते धनलक्ष्मी भी प्रसन्न हुई। इस धरा पर स्वरों की असीम दौलत
बरसानेवाली यह छोटी लडकी लता मंगेशकर के नाम से पहचानी गई।आम तौर पर नाम से पहले तथा बाद में जुडनेवाली उपाधियों से व्यक्ती का बडप्पन निर्धारित होता है। लेकीन कुछ विरले व्यक्तित्व स्वनामधन्य होते हैं। उपाधियां, विशेषनाम, पुरस्कार यह सब उनके लिये ज्यादा मायने नही रखते। व्यक्तित्व ही इतना महान होता हैं की वो सर्वोच्च पुरस्कार रूप हो जाता है। इन विभूतियों का सत्कार नहीं, इबादत होती हैं। लताजी का व्यक्तित्व कुछ ऐसा ही था। किसी पुरस्कार की वजह से वो नही बल्की उनके नाम से पुरस्कार धन्य हुए, कहना अतिरंजित नही होगा।
लता के पिता स्वराधीश मास्टर दीनानाथ मंगेशकर को ज्योतिष विद्या भी अवगत थी। अपनी यह पुत्री विश्व पटल पर नाममुद्रा स्थापित करेगी, लेकिन उसकी कीर्ती जीते जी देखना नसीब नही होगी यह भी वो अच्छी तरह जानते थे। यह बात उन्होंने लता से भी कही थी। अपनी कन्या के दैवी गुणों की जानकारी होने के कारण ही संभवतः मात्र चार-पाच की आयु में ही उन्होने लता की शास्त्रीय संगीत की शिक्षा राग पुरिया धनश्री से शुरू कर दी थी। इस राग से किसी की शिक्षा प्रारंभ होने की बात कभी सुनी नही हैं।
मास्टर दीनानाथ के निधन के पश्चात अमान अली खान सहाब के यहां शुरू रही तालीम अमानत अली सहाब के पास आकर कार्य व्यस्तता के कारण खंडित हुइ। शास्त्रीय संगीत को उचित समय नही दे पाने का मलाल लता दीदी को अंत तक था। हांलाकी शास्त्रीय संगीतविश्व के दिग्गज गायक कुमार गंधर्वजी ने कहा था की लताजी अपने तीन मिनिटों के गीत से ही तीन घंटो की मैफिल का परिपूर्ण अनुभव दिलाने मे सक्षम हैं।
देश की स्वतंत्रता के साथ साथ लताजी का पार्श्वगायन क्षितिज पर उदय हुआ। देश के स्वतंत्रता के अमृत महोसव के साथ साथ भारतरत्न लताजी के पार्श्वगायन करिअर का अमृत महोत्सव मनाने का सौभाग्य प्राप्त होना, एक अनोखा संजोग हैं। जब धीरे धीरे लता जी का जीवन संघर्ष तीव्र सप्तक से मंद्र सप्तक पर उतरने लगा और 1948 मे उन्होंने बडी निश्चयता पूर्वक सभी को कहा… ...आएगाss,आएगाsss,आएगा आएगा आनेवाला आएगा…….. और वो स्वरशिखर पर चिरंतन ध्रुवपद प्राप्त कर गयी।
बॉलीवूड संगीत की दुनिया पर अमिट छाप छोडने के पश्चात भी अपनी आवाज अमर हो गयी यह उनकी धारणा नही रही। अन्यों की तुलना मे काम, नाम और फिर दाम भी अधिक मिलने की बात बडी विनम्रता से उन्होंने विषद करी थी। संगीत के क्षेत्र मे परिपूर्णता का दावा कभी किसी को नही करना चाहिए यह बात बडी स्पष्टता लताजी सदैव कहती थी।
लताजी जब बेसब्री से काम की तलाश मे थी तब संगीत निर्देशक अनिल बिस्वासजी ने उन्हे एक फिल्म के गीत गाने का मौका दिया था। फिल्म के हिरो थे दिलीप कुमार. लोकल ट्रेन यात्रा के दौरान जब लताजी का परिचय दिलीप कुमार से करवाया, तो मंगेशकर नाम सुनते ही, "अरे ये तो मराठी हैं l मराठी लोगों के तलफ्फुज मे थोडी दाल चावल की बू आती है"। ऐसी टिपण्णी उन्होंने की। लता को स्वाभाविक रूप से गुस्सा तो आया पर निराश न होते हुए घर लौटते ही उर्दु सीखने की व्यवस्था कर शीघ्र ही माहरत हासील की तथा सकारात्मकता का परिचय देते हुए कहा की उस टिपण्णी की वजह से उर्दु सिख कर जुबान साफ करने का अवसर मिला।
सफलता का कोई नजदीक, आसान पथ नही होता। कडी मेहनत से ही उसे पाना संभव होता है। युग सम्राज्ञी लताजी भी इस बात की मिसाल हैं। कोई भी गीत रिकार्ड होने से पूर्व वो उस पर कडी मेहनत करती थी। अपना हर गीत स्वहस्ताक्षर मे उतार लेती थी। गाना किस तरह चित्रित होगा? किस पर चित्रित होगा यह सारी जानकारी फिल्म डिरेक्टर से लेती। गीत के बोल, शब्दार्थ की छटाएं अच्छे से समझ लेती थी। इतना सारा गृहपाठ करने के पश्चात ही रिकॉर्डिंग के लिये हां करती थी। यही वजह हैं के उनके सारे गीत कान के रस्ते सीधे दिल में उतरते हैं।
लताजी की एक और विशेषता रही। उनके गले मे कमाल की फिरत थी और मन बिलकुल सरल। सफलता के परचम लहराने के बाद भी इसमे बदलाव नही आया। उनसे किसी का भी सहजता से संवाद होता था। गीतों के चयन मे वो बडी सख्त थी। गीतकार गुलजार का पंचम द्वारा निर्देशित गीत, 'आपकी आँखो मे कुछ महके हुए से राज हैं' से हम सभी परिचित हैं. इस गीत के अंतरे मे 'बदमाश' शब्द पर लता जी को आपत्ती होगी ऐसा पंचम(R D Burman) का कयास था। उन्होंने गुलजार को उस शब्द को बदलने को कहा। पर्यायवाची शब्द देने के लिये अनुकूल होते हुए भी एक बार गुलजार, लता जी को बोल सुनाने के पक्ष मे थे। लता जी ने जब गीत पढा, तो कोई आक्षेप तो किया ही नहीं बल्की एक अलग शब्द गाने का मौका मिला कहते हुए रिकॉर्डिंग के समय, उसे हल्की हंसी की साथ गा कर अलग खुमार लाया। लताजी के गायन की एक और खुबी ये रही की उन्होंने अभिनेत्री को अपना गीत दिया, आवाज नही। उनके गीत अलग अलग कालखंड की अभिनेत्रियों पर बिलकुल सटीकता से सजे, लेकीन जिस प्रकार रफी का आवाज, देवानंद, शम्मी कपूर का हुआ, वैसे लता का आवाज कभी शर्मिला, साधना, नूतन, माधुरी का आवाज नही हुआ, वो हमेशा लता का ही रहा।
प्रसिद्ध शास्त्रीय संगीत गायिका परवीन सुलताना कहती हैं की लतादीदी नि:संदेह दैवी कृपा पाकर जन्मी, लेकीन उसे किस तरह से संभालना, निभाना तथा स्वर्गीय आनंद निर्मित करना इसका उनका अपना तंत्र था। साज के साथ अपनी आवाज का मेल, स्वरो का वजन, उनकी लंबाई तथा चौडाई, दमसास की कारागिरी, लताजी अपने तरीके से करती थी। उनकी स्वरों मे अमूर्त को मूर्त रूप देने का सामर्थ्य था।
सर्वोच्च पद प्राप्ती से भी अधिक दुष्कर होता हैं, उस पद पर बने रहना। नंबर वन होने के फायदे तो हम सभी जानते हैं। लेकिन कठिनाईयां सामान्यजन पूरी तरह नही जानते। पार्श्वगायन के क्षेत्र में अव्वल रहने वाली लता दीदी अपने काम और गायन से कभी संतुष्ट नहीं होती थी। जिनके गाने सुन कर लोग असीम शांति और सुकून का एहसास करते हैं, वह स्वयं, अपने गाने कभी नहीं सुनती थी। न जाने कैसा निकाल कर आया है, यह डर उनकी मन मे हमेशा बना राहता था। यह आत्मविश्वास का आभाव नही परिपूर्णतावादी स्व-भाव था। तीव्र सप्तक के सुर गाते वक्त भी उनके चेहरे पर जरा भी तनाव नजर नही आता था। यह लगभग असंभव है। लेकिन तनाव अपने पैर की अंगुठे पर डाल कर इस बात को लताजी संभव बना देती थी। चप्पल उतार कर गाने की उनकी आदत के कारण किसी रिकॉर्डिंग के दौरान इस बात का खुलासा हुआ था।
सुरमयी लता मंगेशकर का स्वयं का जीवनगीत कई असुर, कणसुर, बेसूर, बदसुरों से व्याप्त था। आशा भोसले और उनके बीच के संबंधो के बारे मे बहुत कुछ लिखा, सुनाया गया। कुछ समय तक इन दो बहनों मे बातचीत बंद थी, यह बात सच हैं, मगर उसकी वजह थे आशा के प्रथम पती गणपतराव भोंसले। आशाजी ने तेरहवी साल मे ही किसी को बिना बताए, घर से भाग कर विवाह रचाया था। फिर सुमन कल्याणपूर, वाणी जयराम जैसे अन्य गायिकाओं का गायन करिअर अवरोहित करने का आरोप उन पर हुआ। लताजी ने उसे सरासर झूठ बाताया था। उन पर विषप्रयोग भी किया गया था। एक साक्षात्कार मे उन्होंने बताया था की हिंदू धर्मिय पुनर्जन्म मे विश्वास करते है, लेकीन मेरी ईश्वर से यह प्रार्थना हैं की वो मुझे पुनर्जन्म ना दे। और अगर देना ही पडा तो फिर लता मंगेशकर का नही, भारत मे, किसी सामान्य मराठी परिवार मे मिले।
मर्त्यलोक मे अपने इस जीवन के आखरी सत्त्ताईस दिन इस गान सरस्वती ने अस्पताल मे बिताये। जब आय सी यू के व्हेंटिलेटर के बिप बिप सुर जीवन मैफिल की भैरवी असुरी कराने लगे तो लताजी ने आंखरी दो दिन हेडफोन्स मंगाए और अपने पिता मास्टर दीनानाथ के सूरों को अपनी कानों मे भरकर भूलोक से गंधर्व लोक के लिये प्रयाण कर दिया।
यद्यपि लताजी, शरीर रूप से दुनिया को अलविदा कर गयी हैं, सुररुप मे वो चिरंतन हमारे साथ होगी। देवर्षी नारद ने, कलियुग के प्रारंभ से ठीक पहले भगवान विष्णू से पूछा की भक्तजनों को उनके दर्शन सरलता से कहां हो सकते हैं? तब प्रश्न के उत्तर मे भगवानजी ने अपना स्थान बताते हुए कहा,
|| नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न च|
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ||
वैकुंठ मे नही, योगिजनों के हृदय मे भी मेरा वास नहीं होता, तथापि भक्तजन जहाँ संकीर्तन, गायन, वादन करते हैं, मैं वहीं पाया जाता हुं। लता दीदी अपार श्रध्दालु थी। उनका गाना सुनकर यहाँ मृत्यूलोक मे ही हमे भगवान विष्णू के सानिध्य का लाभ हो रहा है।
नितीन सप्रे
8851540881
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