स्मृतीबनातून - माई री मैं का से कहूँ
माई री मैं का से कहूँ
"एक संसारी से प्रीतड़ी, सरै न एकी काम, दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम।" जिसका अर्थ हैं संसार से प्रीत की रीत बडी न्यारी है। संसार से प्रीती मे, कोई काम बनने के असार तो कम, लेकीन दुविधा या भ्रम की स्थिति जरूर बन जाती है। ऐसी दुविधा जनक स्थिती मे अक्सर दोनो, भौतिक और पारमार्थिक लाभ से हाथ धोना पडता है।अत: मनुष्य को अपने जीवन में दुविधा से बचने की कोशिश करनी चाहिए। लेकीन क्या ये इतना आसान है? आइए इस कहानी पर गौर किजिये।
कथा
शादी के बाद एक बारात दूल्हे की गाव जा रही है। रास्ते मे विश्राम हेतू वह बारात एक जगह रुकती है। संजोग की बात है कि दुल्हन जिस पेड के नीचे बैठी है उसी पेड पर एक भूत है और राहगिरों को लगता है। इस दुल्हन को भी लगने की इच्छा से वो पेड से तो उतर आता है, लेकिन उस निहायत निरागस सुंदरता को देखकर उसके मन मे कुछ अलग भाव पैदा होते है। इसे लगे या ना लगे इस दुविधा मे वो पड जाता है।
एक तरफ लगने की कामना तो है, वही दुसरी तरफ ऐसी सुंदरता को कष्ट पहुचाना उसे रास नही आता। एक तरह से देखा जाये तो ये संस्कारी भूत है। वो दुल्हन को नही लगता और बारात आगे के लिए रवाना होती है। पुरे रास्ते मे नई नवेली दुल्हन के मन मे साज, सज्जा, शृंगार का विषय चल रहा होता है, तो दुल्हा, जो की बनिया का बेटा है, शादी पर हुए खर्च का हिसाब जोडने मे व्यस्त है। नवपरिणीता की भावनांओं से अधिक, पिता को खर्च का हिसाब देना उसके लिए अधिक महत्वपूर्ण है। धन, व्यापार, कारोबार उस पर इस तरह हावी है की रास्ते मे नदी किनारे लगे टरबूजो को खाने की दुल्हन की इच्छा को वो जंगली करार देता है। साथ ही वो उसे बताता है की, लंबे समय बाद एक ऐसा मूहूर्त आया है कि अगले ही दिन वो व्यापार के लिए पांच साल के लिये परदेस निकल जायेगा। व्यापार और धन कमाने की लालसा का भूत उस पर इस तरह हावी है की अगली ही सुबह वो परदेस के लिये निकल पडता है। रास्ते में वही पेड के नीचे से गुजरता है जहाँ बारात रुकी थी। पेड पर निवासी भूत असे तुरंत पहचान लेता है और शादी के दुसरे ही दिन 5 साल के लिए व्यापार हेतू परदेस जाने के संदर्भ मे उससे कई तर्क करता है। निग्रही दुल्हा चला ही जात है।आगे क्या होता है यह जानने हेतू विजयदान देथा लिखित "दुविधा" (माई री मैं का से कहूँ ) नाटक देखना होगा। आज के प्रगतिशील समाज मे भी स्त्रियों की स्थिती, भौतिकवाद, अतिरिक्त धन लालसा ऐसे कई पहलूओं को रोचकता के साथ उजागर करता है। आधुनिक समाज मे भी स्त्री अपनी इच्छा भावना और सामाजिक मर्यादा के बीच किस तरह आंदोलित होती है इसका बडा सटीक चित्रण लेखक ने किया है। विज्ञान और बुद्धि के उत्कर्ष पर पहुँचने का दावा करनेवाले आज के समाज में भी स्त्री अपनी मानसिक और शारीरिक अधिकारों के इस्तेमाल के लिए पूर्णतः स्वतन्त्र नहीं है।
देथा जी लिखते है "लुगाई की अपनी मर्ज़ी होती ही कहाँ है, मसान ना पहुंचे तब तक मेढ़ी, और मेढ़ी से सीधी मसान". जन्म से लेकर विवाह तक उसके सारे अधिकार उसके माँ-बाप के पास होते हैं और विवाह के बाद पति और बच्चों के पास। स्त्री के अस्तित्वा का सारा आकाश आज भी फैला है सिर्फ और सिर्फ "मेढ़ी से मसान तक।"भौतिकवाद पर टीपणी
इस मुद्दे के अलावा यह नाटक भौतिकवाद पर भी टीपणी करता है। आज अतिरिक्त धन लालसा के कारण मनुष्य के जीवन से कैसे 'जीवन' ही लुप्त होते जा रहा है इस बात को भी बनिये तथा दूल्हे के प्रतिकों से समझना सरल है। धन साधन जरूर है। साध्य नही। यह तत्व नही समझे तो मनुष्य जीवन मे साधन सुख तो प्राप्त होगा लेकीन साजन सुख लुप्त होगा। धन, सत्ता को ही अहमियत देना शायद उचित नही बल्की, सामान्य जन के प्रतीक, अतिरिक्त धन लालसा न रखनेवाले गडरिया की भूमिका और उसका विवेक भी अहम है।
प्रस्तुती
हमारे देश में कथा, गायन, वाचन, अभिनय की सुदृढ परंपरा रही है। विजयदान देथा जी की इस आशयपूर्ण कथा सक्षम गायन और अभिनय से बडे ही आकर्षक रूप से निर्देशक अजय कुमार जी ने दर्शकों के सामने प्रस्तूत की है. 21 कलाकारों ने अपने गायन तथा अभिनय से इस प्रस्तुती मे जान फूंकी है। साथ देते छह वादक तथा गायक कलाकारों के बिना इस संगीत प्रधान नाटक के मंचन की कल्पना असंभवसी प्रतीत होती है। गायन और नृत्यप्रधान इस नाटक मे संस्कारी भूत(सौरभ गुरू), दुल्हन(शिवानी भारतीय), माता बनी दुल्हन(सुगंधा पांडे), गडरिया(सुमन कुमार) व्यापार के लिये निकला दुल्हा(अनंत शर्मा) तथा बनिया(विक्रम लेपचा)
इन कलाकारों ने अपने अभिनय से प्रस्तुती को चार चांद लगा दिए। साथ ही शाहरुख खान तथा रानी मुखर्जी की पहेली फिल्म की याद भी ताजा की।दिल्ली स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के सम्मुख सभागार मे शनिवार दोपहर को खेला गया 'माई री मैं का से कहूँ' यह नाटक मानो तेज गर्मी मे शीत लहरसा प्रतीत हुआ। यह बेहतरीन अनुभव देने के लिये लेखक, निर्देशक, कलाकार, गायक, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय तथा इस प्रस्तुती से संबद्ध सभी साधुवाद के पात्र है।नितीन सप्रे, दिल्ली
nitinnsapre@gmail.com
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